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*भेष न रीझे मेरा निज भर्तार,*
*तातैं कीजै प्रीति विचार ॥*
*पीव पहचानें आन नहिं कोई,*
*दादू सोई सुहागिनी होई ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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ना वह रीझै जप तप कीन्हें, न आतम को जारे।
ना वह रीझे धोती टांगे, ना काया को पखारे॥
उस परमात्मा को तुम रिझा न सकोगे–न तो जप से, न तप से; न आत्मा को चलाने से–पीड़ा देने से; न छुआ-छूत–शुद्धि के विचार से–वर्ण-धर्म से; और न काया की शुद्धि से।
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पहली बात समझने की है: ना वह रीझै…। रीझै शब्द भक्त का है; उसमें भक्ति की कुंजी छिपी है। परमात्मा को पाना नहीं है; परमात्मा को रिझाना है। समझो: इसका अर्थ हुआ–कि परमात्मा है: इस पर तो भक्त को संदेह ही नहीं है। परमात्मा के होने में तो श्रद्धा है ही।
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परमात्मा के लिए भक्त प्रमाण नहीं मांगता। भक्त यह नहीं कहता कि सिद्ध करो: परमात्मा है। जो कहे: सिद्ध करो–परमात्मा है, उसके लिए भक्ति का मार्ग नहीं है। भक्त के लिए परमात्मा ही है। और अब चीजें असिद्ध हैं, सिर्फ परमात्मा सिद्ध है। यह बात बिना किसी प्रमाण के उसे स्वीकार है।
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ज्ञानी को अखरेगी यह बात–कि यह क्या अंधापन हुआ ! लेकिन ज्ञानी के लिए जो आंख है, वह भक्त के लिए आंख नहीं है। और ज्ञानी के लिए जो अंधापन है, वह भक्ति के लिए आंख है। श्रद्धा बड़ी कला है। श्रद्धा कोई छोटी-छोटी घटना नहीं है। श्रद्धा का अर्थ होता है: संदेह से प्राण व्यथित नहीं होते।
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हर बच्चा श्रद्धा लेकर पैदा होता है। श्रद्धा स्वाभाविक है। जब बच्चा अपनी मां के स्तन पर मुंह रखता है और दूध पीना शुरू करता है, तो श्रद्धा से–संदेह से नहीं। संदेह हो, तो मुंह अलग कर ले। पता नहीं–जहर हो। पहले प्रमाण चाहिए। स्तन से पोषण मिलेगा–इसका प्रमाण क्या है ? इसके पहले तो बच्चे ने कभी स्तन से पोषण पाया नहीं है। पहली दफा स्तन को पीने चला है। प्रमाण कहां है ? जिसके स्तन से पीने चला है दूध, वह जहरीली न होगी, इसका सबूत क्या है ?
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नहीं; बच्चा पीना शुरू कर देता है। एक सहज श्रद्धा है; एक आस्था है, जो अभी संदेह से मलिन नहीं हुई है। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होगा, श्रद्धा संदेह से मिलन होने लगेगी। वह अपने बाप पर भी संदेह करेगा, अपने मां पर भी संदेह करेगा। जैसे-जैसे बड़ा होगा, वैसे-वैसे संदेह भी बड़ा होगा।
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संदेह हम सीखते हैं; श्रद्धा हम लाते हैं। कुछ धन्यभागी लोग हैं, जो अपनी श्रद्धा को बचा लेते हैं; नष्ट नहीं हो पाती। बड़ा साहस चाहिए–श्रद्धा को बचाने के लिए। कौन सा साहस ?… संदेह में कोई बड़ा साहस नहीं है। संदेह तो भय के कारण ही पैदा होता है। इसे थोड़ा समझो।
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संदेह आता है–भय की छाया के कारण। जब तुम डरते हो, तभी तुम संदेह करते हो। संदेह का मतलब होता है: पता नहीं, दूसरा लूट लेगा; चोरी करेगा; मारेगा; क्या होगा! जब तुम भयभीत होते हो, तब संदेह आता है। जब तुम निर्भय होते हो, तब श्रद्धा होती है।
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जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होगा, भय भी होगा। परिचित होगा उनसे, जो अपने नहीं हैं। परिवार के बाहर जायेगा। लोग लूट लेंगे कभी; लोग मार देंगे कभी; कभी लोग धोखा देंगे। धीरे-धीरे संदेह बढ़ेगा। धीरे-धीरे शंकालु दृष्टि पैदा होगी। धीरे-धीरे अपने संदेह में घिरा रहने लगेगा। सजग होकर चलेगा–कि कोई लूट न ले; कोई धोखा न दे दे। और ऐसे धीरे-धीरे मनुष्यता पर भरोसा खो देगा; अस्तित्व पर भरोसा खो देगा। इस भरोसा खो देने को कोई बड़ी गुणवत्ता नहीं कहा जा सकता। यह तो इसी बात का सबूत है कि भय बहुत घना हो गया है।
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निर्भय व्यक्ति ही श्रद्धा को उपलब्ध होते हैं। और श्रद्धा को उपलब्ध होते हैं कहना ठीक नहीं; निर्भय व्यक्ति अपनी श्रद्धा को खंडित नहीं होने देते। जिस श्रद्धा को जन्म के साथ लेकर आये थे, उसे बचाये रखते हैं–धरोहर की तरह।
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परमात्मा पर श्रद्धा का इतना ही अर्थ है–जैसे मां पर श्रद्धा। मां से तुम्हारा जन्म हुआ है, इसलिए मां से जो मिलेगा, वह पोषण होगा। इस अस्तित्व से हमारा जन्म हुआ है, इसलिए अस्तित्व हमारा शत्रु नहीं हो सकता। यह अस्तित्व हमारी मां है।
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इस अस्तित्व को ही हमने अगर शत्रु मान लिया, तो हद हो गयी! जिससे हम पैदा हुए हैं, वह हमारे विपरीत हो सकता है। और जिसमें हम फिर पुनः लीन हो जायेंगे, यह हमसे विपरीत नहीं हो सकता। हम उसी के फैलाव हैं। जैसे सागर में तरंगें हैं, ऐसे हम परमात्मा की तरंगें हैं। भक्त को यह बात प्रगाढ़ रूप से प्रकट है। इसके लिए किसी प्रमाण की जरूरत नहीं है। ऐसा उसे स्पष्ट अनुभव होता है। और इस अनुभव में कोई खामी मुझे दिखायी नहीं पड़ती; कोई भूलचूक दिखायी नहीं पड़ती।
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ये वृक्ष पृथ्वी पर भरोसा किये हैं; पृथ्वी में जड़ें फैला रहे हैं। जानते हैं कि पृथ्वी रसवती है; मां हैं। ये वृक्ष आकाश में सिर उठा रहे हैं; ये सूरज को छूने के लिए चले हैं; जानते हैं कि सूरज पिता है; उसकी किरणों में प्राण है; जीवन है। इस श्रद्धा के बल पर ही ये जी रहे हैं। किसी वृक्ष को अश्रद्धा हो जाये, वह मरना शुरू हो जायेगा। डर हो जाए पैदा–कि पता नहीं: पृथ्वी से रस मिलेगा कि मौत; कि सूरज है भी, कि नहीं–ऐसा भयभीत हो जाए वृक्ष, तो सिकुड़ जायेगा–अपने में बंद हो जायेगा।
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खंडित होने लगेगी। उसकी जीवन धारा। जीवन के रास-स्रोत सुख जायेंगे। भक्त रसपूर्ण है। भक्त की पहली शर्त है–कि परमात्मा है। इसमें वह प्रमाण नहीं मांगता। इसलिए कहते हैं मलूक: ना वह रीझे…। इसलिए यह तो सवाल ही नहीं उठाना कि है परमात्मा या नहीं। यह भक्त के लिए सवाल नहीं है।
ओशो

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