बुधवार, 15 मई 2024

निराकार की ओर

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
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*हरि जल बरसै बाहिरा, सूखे काया खेत ।*
*दादू हरिया होइगा, सींचणहार सुचेत ॥*
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श्रीरामकृष्ण - एक स्टूल खरीद लाना - यहाँ के लिए । कितना लगेगा ?
मास्टर - जी, दो-तीन रुपये के भीतर आ जायगा ।
श्रीरामकृष्ण - नहाने की चौकी जब बारह आने में मिलती है तो उसकी कीमत इतनी क्यों होगी ?
मास्टर - कीमत ज्यादा न होगी - उतने के ही भीतर हो जायगा ।
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श्रीरामकृष्ण - अच्छा, कल तो बृहस्पतिवार है - तीसरा पहर अशुभ होगा । क्या तीन बजे से पहले न आ सकोगे ?
मास्टर - जी हाँ, आऊँगा ।
श्रीरामकृष्ण - अच्छा, यह बीमारी कितने दिनों में अच्छी होगी ?
मास्टर - जरा बढ़ गयी है, कुछ दिन लगेंगे ।
श्रीरामकृष्ण - कितने दिन ?
मास्टर - पाँच-छ: महीने लग सकते हैं ।
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यह सुनकर श्रीरामकृष्ण बालक की तरह अधीर हो गये । कहते हैं - “कहते क्या हो ?"
मास्टर - जी, मैंने जड़-समेत अच्छी होने के लिए इतने दिन बतलाये हैं ।
श्रीरामकृष्ण - यह कहो । अच्छा, ईश्वरी रूपों के इतने दर्शन होते हैं, भाव और समाधि होती है, फिर ऐसी बीमारी क्यों हुई ?
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मास्टर - जी, आपको कष्ट तो बहुत हो रहा है, परन्तु इसका उद्देश्य है ।
श्रीरामकृष्ण - क्या उद्देश्य है ?
मास्टर - आपकी अवस्था में परिवर्तन हो रहा है । निराकार की ओर झुकाव हो रहा है । आपका 'विद्या का मैं' भी नष्ट हुआ जा रहा है ।
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श्रीरामकृष्ण - हाँ, लोक-शिक्षा बन्द हो रही है । अब और नहीं कहा जाता । सब राममय देख रहा हूँ । कभी कभी मन में आता है, किससे कहूँ ? देखो न, यह मकान किराये पर लिया गया, इससे कितने प्रकार के भक्त आ रहे हैं ।
“कृष्णप्रसन्न सेन या शशधर की तरह साइन-बोर्ड तो न लटकाया जायगा कि इतने समय से इतनी समय तक लेक्चर होगा !" (श्रीरामकृष्ण और मास्टर हँसते हैं)
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मास्टर - एक उद्देश्य और है, भक्तों का चुनना । पाँच साल तक तपस्या करके जो कुछ न होता, वह इन्हीं कुछ दिनों में भक्तों को हो गया । उनका प्रेम, उनकी भक्ति आषाढ़ की बाढ़ के समान बढ़ती जा रही है ।
श्रीरामकृष्ण - हाँ, यह तो हुआ । अभी निरंजन घर गया था ।
(निरंजन से) "तू बता, तुझे क्या मालूम पड़ता है ?"
निरंजन - जी, पहले प्यार ही था, परन्तु अब छोड़कर नहीं रहा जाता ।
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मास्टर - मैंने एक दिन देखा था, ये लोग कितना बढ़े-चढ़े हैं ।
श्रीरामकृष्ण - कहाँ ?
मास्टर - एक तरफ खड़ा हुआ श्यामकुरवाले मकान में देखा था । जान पड़ा, ये लोग कितनी बड़ी बाधाओं को हटाकर वहाँ सेवा के लिए आकर बैठे हुए हैं ।
यह बात सुनते ही श्रीरामकृष्ण को भावावेश हो रहा है । कुछ देर तक वे स्तब्ध रहे, फिर समाधिस्थ हो गये ।
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भाव का उपशम होने पर मास्टर से कह रहे हैं - “मैंने देखा, साकार से सब निराकार में जा रहे हैं । और सब बातें कहने की इच्छा हो रही है, परन्तु कहने की शक्ति नहीं है ।
"अच्छा, यह निराकार की ओर का सुझाव केवल लीन होने के लिए है न ?"
मास्टर - ( आवाक् होकर) - जी, ऐसा ही होगा ।
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श्रीरामकृष्ण - अब भी देख रहा हूँ, निराकार अखण्ड सच्चिदानन्द - ठीक इसी तरह ..... परन्तु बड़े कष्ट से मुझे भाव-संवरण करना पड़ रहा है ।
"तुमने जो भक्तों के चुनने की बात कही, वह ठीक है । इस बीमारी में यह समझ में आ रहा है कि कौन अन्तरंग है और कौन बहिरंग । जो लोग संसार को छोड़कर यहाँ पर हैं, वे अंतरंग हैं । और जो लोग एक बार आकर केवल पूछ जाते हैं, 'कैसे हैं, आप महाशय ?" वे बहिरंग हैं ।
"भवनाथ को तुमने देखा नहीं ? श्यामपुकुर में दूल्हा-सा सजकर आया और पूछा – ‘कैसे हैं आप ?’ बस तब से फिर उसने इधर का नाम तक नहीं लिया । नरेन्द्र के कारण ही मैं उसका इतना ख्याल करता हूँ, परन्तु अब उस पर मेरा मन नहीं है ।"
(क्रमशः)

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