बुधवार, 15 मई 2024

*श्री रज्जबवाणी, शूरातन का अंग(५) ~ १.३४*

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*शूरातन सहजैं सदा, साच सेल हथियार ।*
*साहिब के बल झूझतां, केते लिये सु मार ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ शूरातन का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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सवैया ग्रंथ भाग ३
शूरातन का अंग (५)
सींगणी१ सुमति काढि जेह२ लें जुगति चाढि,
बैन बान धाय बाट सदगुरु सहायई ।
कवच करम फोरि कुमति करि को तोरि,
निकस्यों है पैली३ ओरि ऐसे कसि४ बाहई५ ॥
निज ठौर लाग्यो तीर लायो जी विवेकी वीर,
लागत रही न धीर पानी हु न चाहई ।
ऐसी विधि मार्यो बान तन मन कियो घान६,
अंतरि वेध्योजु प्रान७ रज्जब अज्जब चोट रह्यो खेत८ नाह९ई ॥३॥
जो२ वीर सु बुद्धि रूप धनुष१ को प्रमाद रूप कंधे निकाल कर उस पर युक्ति पूर्वक वचन रूप बाण चढा लेते हैं, वह सदगुरु रूप भुजा की सहायता से ... 
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निष्काम मार्ग द्वारा दौड़ता हुआ अविवेक पर जाता है, उसके कर्म रूप कवच को तोड़ कर कुबुद्धि रूप हाथी को मारता हुआ पर३ पार निकल गया है । विवेकी वीर ने ऐसे खैंच४ कर बाण मारा५ है, जो ठीक हृदय रूप निजस्थान पर लगा है । 
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लगते ही भोगों को भोगने का धैर्य नहीं रहा है, उन्हें देखना रूप पानी भी नहीं चाहा है । 
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इस प्रकार बार मारा है कि - तन का अध्यास और मन का विषय राग तो नष्ट६ कर ही दिया है । प्राणी७ का आन्तर हृदय विद्ध हो गया है । इस अदभुत चोट के लगते ही योग संग्राम८ में एक प्रभु९ ही रहा है । अर्थात ब्रह्म साक्षात्कार होने पर ब्रह्म से भिन्न कुछ भी नहीं भासता है । 
(क्रमशः)


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