बुधवार, 12 जून 2024

*परमानन्दजी सारंगी*


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*प्रीति जु मेरे पीव की, पैठी पिंजर मांहि ।*
*रोम-रोम पीव-पीव करै, दादू दूसर नांहि ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*परमानन्दजी सारंगी*
*छप्पय-*
*गोपी कलि मनु१ अवतरी,*
*परमानंद भयो प्रेम पर२ ॥*
*बाल्य अवस्था तीन,*
*गोप्य गुण प्रकट सु गाये ।*
*नहीं अचम्भा कोय,*
*आदि के सखा सुहाये३ ॥*
*रात दिवस सब रोम,*
*उठें जल बहै दृगन तैं ।*
*कृष्ण शोभ तन गलित,*
*गिरा गद गद सु मगन तैं ।*
*संज्ञा सारंगी कहैं,*
*सुनत कान आवेश कर ।*
*गोपी कलि मनु अवतरी,*
*परमानंद भयो प्रेम पर ॥२९३॥*
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मानो कलियुग में किसी गोपी ने ही अवतार लिया है, ऐसे ही परमानन्दजी प्रभु-प्रेम परायण२ थे ।
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श्रीकृष्ण जन्म से पाँच वर्ष तक की *बाल्यावस्था*, दश वर्ष तक *पौगण्डावस्था*, और दश से सोलह वर्ष के भीतर *कैशोरावस्था*, इन तीन अवस्थाओं के गुप्त गुण और लीलाओं को आपने प्रकट रूप से गाया है । इस कार्य पर कोई आश्चर्य नहीं करें, क्योंकि आप तो प्रथम से श्रीकृष्ण के सुप्रिय३ सखा हैं ।
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प्रभु प्रेम से रात दिन आपके शरीर में रोमाञ्च होता रहता था और नेत्रों से प्रेमाश्रु बहते रहते थे । श्रीकृष्ण की शोभा से शरीर भीगा रहता था । प्रभु-प्रेम में निमग्न रहने से वाणी गदगद रहती थी ।
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अपनी रचना में ये सारंग छाप लगाते थे, इससे इनको सारंगी परमानन्द कहते थे । इनकी कविता कान में पड़ने से आवेश बढाने वाली थी अर्थात् सुनते ही प्रेमावेश हो जाता था । वल्लभाचार्य तीन दिन तक मूर्छित रहे थे ॥२९३॥
(क्रमशः)

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