गुरुवार, 13 जून 2024

*श्रीरामकृष्ण के दर्शन*

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*सोवत सोवत जन्म बीते,*
*अजहूँ न जीव जागे ।*
*राम सँभार नींद निवार, जन्म जुरा लागे ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(३)श्रीरामकृष्ण के दर्शन*
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आज चैत्र तृतीया है, सोमवार, १५ मार्च १८८६ । सबेरे ७-८ बजे का समय होगा । श्रीरामकृष्ण कुछ अच्छे हैं, भक्तों के साथ धीरे-धीरे, कभी इशारे से, बातचीत कर रहे हैं । पास में नरेन्द्र, राखाल, मास्टर, लाटू, सींती के गोपाल आदि बैठे हुए हैं ।
भक्तमण्डली मौन है । पिछली रात की अवस्था सोचकर भक्तों के चेहरे पर विषाद की गम्भीरता छायी हुई है । सब चुपचाप बैठे हैं ।
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श्रीरामकृष्ण - (मास्टर की ओर देखकर, भक्तों से) - क्या देख रहा हूँ ? - सुनो, सब वे ही हुए हैं । मनुष्य और जिस-जिस जीव को मैं देख रहा हूँ, मानो सब चमड़े के बने हुए हैं, उनके भीतर से वे ही हाथ, पैर और सिर हिला रहे हैं । जैसा एक बार मैंने देखा था - मोम का मकान, बगीचा, रास्ता, आदमी, बैल - सब मोम के - सब एक ही चीज के बने हुए थे ।
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"देखता हूँ, वे ही बलि हैं, वे हो बलि देनेवाले हैं तथा वे ही बलि का खम्भा हैं ।"
यह कहते कहते श्रीरामकृष्ण भाव में विभोर हो रहे हैं । वे ईश्वर की उस व्यापकता का अनुभव करते हुए कह रहे हैं - 'अहा ! अहा !'
फिर वही भावावस्था हो गयी । श्रीरामकृष्ण का बाह्यज्ञान चला जा रहा है । भक्तगण किंकर्तव्यविमूढ़ हो चुपचाप बैठे हुए हैं ।
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श्रीरामकृष्ण प्रकृतिस्थ होकर कह रहे हैं - "अब मुझे कोई कष्ट नहीं है । बिलकुल पहले जैसी अवस्था है ।"
श्रीरामकृष्ण की इस दुःख और सुख से अतीत अवस्था को देखकर भक्तों को आश्चर्य हो रहा है । लाटू की ओर देखकर श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं - "यह लाटू है । सिर पर हाथ रखे बैठा है । मैं देख रहा हूँ, वे ही(ईश्वर ही) सिर पर हाथ रखे बैठे हुए हैं ।"
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श्रीरामकृष्ण भक्तों की ओर देख रहे हैं और स्नेहाद्र हो रहे हैं । शिशु को जिस तरह प्यार किया जाता है, उसी तरह वे राखाल और नरेन्द्र के प्रति स्नेह-भाव दिखला रहे हैं - उनके मुख पर हाथ फेर रहे हैं ।
कुछ देर बार मास्टर से कहते हैं - "शरीर अगर कुछ दिन और रहता तो बहुतसे लोगों में आध्यात्मिकता की जागृति हो जाती ।” इतना कहकर वे चुपचाप हो रहे ।
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श्रीरामकृष्ण फिर कह रहे हैं - "पर अब यह न होगा - अब यह शरीर नहीं रहेगा ।" भक्त सोच रहे हैं कि श्रीरामकृष्ण और क्या कहेंगे ।
श्रीरामकृष्ण - इस शरीर को अब वे(ईश्वर) न रहने देंगे, इसलिए कि मुझे सरल और मूर्ख समझकर कहीं सब लोग घेर न ले, और मैं सरल और मूर्ख कहीं सभी को सब कुछ दे न डालूँ । कलिकाल में लोग तो ध्यान और जप से घृणा करते हैं ।
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राखाल - (सस्नेह) - आप उनसे कहिये जिससे आपका शरीर रहे ।
श्रीरामकृष्ण - वह ईश्वर की इच्छा ।
नरेन्द्र - आपकी इच्छा और ईश्वर की इच्छा दोनों एक हो गयी है ।
श्रीरामकृष्ण कुछ देर चुप हैं, मानो कुछ सोच रहे हैं ।
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श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र और राखाल आदि से) - और कहने से भी क्या होगा ?
"अब देखता हूँ, एक हो गया है । ननद के भय से राधिका ने श्रीकृष्ण से कहा, 'तुम हृदय के भीतर रहो ।' जब फिर व्याकुल होकर श्रीकृष्ण को उन्होंने देखना चाहा – ऐसी व्याकुलता कि कलेजे में जैसे बिल्ली खरोंच रही हो - तब श्रीकृष्ण हृदय से बाहर निकले ही नहीं !"
राखाल - (भक्तों से, धीमे स्वर से) - यह बात इन्होंने श्रीगौरांगवतार के सम्बन्ध में कही है ।
(क्रमशः)

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