गुरुवार, 20 जून 2024

म्हारा मन का मनोरथ

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*मन चित चातक ज्यों रटै,*
*पीव पीव लागी प्यास ।*
*दादू दर्शन कारणै, पुरवहु मेरी आस ॥*
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*॥श्रीदादूदयालवे नमः॥*
*अथ बषनांजी का पद मांड्या ॥*
*राग गौड़ी ॥१॥विरह॥*
म्हारा मन का मनोरथ, पुरवण आवो नैं घरे ।
आवो नैं घरे रामइया कृपा हो करे ॥टेक॥
आज सषी सुपिना महीं, पिव सौं खेली आलि रे ।
मैं जाण्यौं हरि आइयौ, हुँ सूती पड़ी जँजालि रे ॥
पिव पिव प्राण पुकारियौ, चात्रिक की सी बाणि रे ।
हरि मिलबा कै कारणैं, हौं हुई बबीहौ राणि रे ॥
कहाँ कहाँ का साँभलौं, कुण कुण गुण चीतारौं रे ।
बिरह महा घण ऊमट्यौ, म्हारा नैन अपूठा मारौं रे ॥
पीड़न पीड़ी ना पड़ै, ऊभी मेल्हौं धाह रे ।
इहिं बेलाँ आयौ नहीं, मो अपराधणि कौ नाह रे ॥
सासड़ै ऊसासड़ौ, नीसासड़ौ डारौं रे ।
ऊभी रे सिरि हाथ दे, बिरहनि बाट निहारौं रे ॥
तीनि पहर रैंणी गई, चौथौ पहरौ आयौ रे ।
पह कौ तारौ ऊगयौ, म्हाँरौ साँइ सेज न आयौ रे ॥
म्हारै चिति रामइयौ आइयौ, साल्यौ माँझिल राति रे ।
बषनां बिरहनि कै बह्यौ, मानौं करवत गाति रे ॥१॥
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पुरवण = पूर्ण करने के लिये । घर = हृदय । खेली आलि = केलि, रतिक्रीड़ा की । जंजालि = स्वप्न । बाणि = प्रकृति, स्वभाव । बबीहौ = पाठांतर ‘बबीदौ’; बबीहौ = चातक; बबीदौ = बेहाल । राणि = दृढ़, पक्की । सांभलौं = स्मरण करूँ । चीतारौ = चिंतन करूँ । घण = बादल । ऊमट्यौ = उमड़ा । अपूठा = उल्टे । पीड़न = वेदनाएं । पीड़ी = शांत, मंद । धाह = जोर की आवाज में पुकार, क्रंदन । वेलाँ = अवसर पर । नाह = पति । सासड़ौ = श्वास । ऊसासड़ौ = प्रश्वास । निसासड़ौ = निश्वास रैंणी = रात्रि । पह = प्रभात । साल्यौ = खटका, दुखी किया । बह्यौ = चला । करवत = करौंत । गाति = शरीर ॥
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बषनांजी का नाम दादूपंथ में “बषनां विरही” है । ये विरह के पद बनाते और ही नहीं थे, इनका जीवन भी परमात्म-अमिलन-जन्य विरह से सराबोर था । आत्मानुभूति हो जाएँ पर भी इनकी प्रकृति नहीं बदली और ये आजन्म विरहिणी जैसे हाल में ही रहे । बषनांजी कहते हैं, मेरे मन के मनोरथों को पूर्ण करने के लिये हे रमैया ! मेरे घर में पधारो ।
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हे सखी ! आज स्वप्न में मैं प्रियतम के साथ कामकेलि में निमग्न रही । मैं स्वप्न में सोई पड़ी थी और मैंने अनुभव किया कि प्रियतम मेरी सेज पर पधारे हैं और मैंने उनके साथ पूरी रात्रि संभोग किया है । मेरा स्वभाव पिव-पिव करते हुए प्रियतम को याद करने का वैसा ही बन गया है जैसे चटक = पपीहे का होता है ।
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प्रियतम से मिलने के लिये मैं चातक जैसे पक्के स्वभाव की बन गई हूँ । मैं उस प्रियतम के किन-किन और कहाँ-कहाँ के गुणों का स्मरण और चिंतन करूँ । वह अनंत गुण निधान हैं और मैं विरह की मारी विरहनी हूँ । विरह के कारण उन गुणों का पूरा-पूरा स्मरण होना असंभव सा लगता है ।
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मेरे हृदय में विरह रूपी बादल पूर्णता के साथ उमड़-आया है जिसके कारण मेरे नेत्र उलट गये हैं । अर्थात् मेरे नेत्रों ने बंद होना बंद कर दिया है । वे प्रियतम के दर्शन करने के लिये आतुर हुए सदैव खुले ही रहते हैं । मेरी विरहजन्य पीड़ा जरा भी शिथिल नहीं होती है, उल्टे मैं तो चौबीसों घंटे जागृत रहकर उस प्रियतम को बुलाने के लिये पुकारती ही रहती हूँ ।
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इतनी बुरी अवस्था में भी मुझ अपराधी पत्नी का पति आया ही नहीं । मैं श्वास-प्रश्वास-निश्वास लेती और निकालती हूँ । शिर पर हाथ रखकर = विरहमग्न होकर = उदास होकर मैं विरहनी पति के आने की बाट जोहती रहती हूँ । रात्रि के तीन प्रहर बीत गये हैं ।
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चौथा प्रहर प्रारम्भ होने की सूचना देने वाला तारा भी आकाश में प्रकट हो गया है । किन्तु मेरा पति मेरी सेज पर नहीं आया है । मुझे मध्यरात्रि में प्रियतम का स्मरण हो आया । मैं उसके न आने से दुखी = संतप्त हुई । बषनांजी कहते हैं, यह अवसर ठीक वैसे ही व्यतीत हुआ जैसे मेरा शरीर पर करौंत फेर दी गई हो ॥१॥
(क्रमशः)

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