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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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*भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।*
*साभार : महामण्डलेश्वर स्वामी अर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।*
*#हस्तलिखित०दादूवाणी सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #४३७)*
*राग धनाश्री ॥२७॥**(गायन समय दिन ३ से ६)*
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*४३७. पद (दीपचन्दी)*
*राम तहाँ प्रगट रहे भरपूर, आत्मा कमल जहाँ,*
*परम पुरुष तहाँ, झिलमिल झिलमिल नूर ॥टेक॥*
*चन्द सूर मध्य भाइ, तहाँ बसै राम राइ, गंग जमुन के तीर ।*
*त्रिवेणी संगम जहाँ, निर्मल विमल तहाँ, निरख निरख निज नीर ॥१॥*
*आत्मा उलटि जहाँ, तेज पुंज रहै तहाँ, सहज समाइ ।*
*अगम निगम अति, जहाँ बसै प्राणपति, परसि परसि निज आइ ॥२॥*
*कोमल कुसम दल, निराकार ज्योति जल, वार न पार ।*
*शून्य सरोवर जहाँ, दादू हंसा रहै तहाँ, विलसि-विलसि निज सार ॥३॥*
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यद्यपि श्रीराम व्यापक होने से सर्वत्र परिपूर्ण हैं । फिर भी जीवात्मा के अष्टदलकमल में निरावरण रूप से साधक की ध्यानावस्था में स्वयं प्रकाशमान होने से भगवान् श्रीराम का प्रकाश बादलों में बिजली के प्रकाश की तरह प्रकाश विशेष रूप से भासता है ।
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चन्द्र-रूपा-इड़ानाड़ी सूर्य-रूपा-पिंगला नाड़ी इन दोनों के मध्य में जो सुषुम्ना नाड़ी बहती है । अष्टदल-कमल के मध्य में इन तीनों का कुम्भक के समय में समागम होता है, वहां संगम रूप त्रिवेणी के निर्मल तट पर निर्मल ब्रह्म रूप जीव रहता है, उसको तू देख ।
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वहां पर प्रकाश पुंज की तरह आत्मस्वरूप ब्रह्म रहता है, उस ब्रह्म में अपनी मनोवृत्ति को अन्तर्मुख बनाकर सहजस्वरूप ब्रह्म में उस वृत्ति को लीन करो । जो वेदों के द्वारा भी अगम्य अपने ही महिमा में स्थित प्राणों का स्वामी जो ब्रह्म है, उसका मनोवृत्ति के द्वारा बार बार चिन्तनरुपी स्पर्श प्राप्त करके साधक वहां पर चला जाता है ।
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अष्टदलकमल के पुष्प के पत्ते पर जल में प्रतिबिम्बित ज्योति की तरह निराकार ब्रह्म सर्वत्र दिखता है । ब्रह्म स्वरूप शून्य सरोवर का जहां साक्षात्कार होता है, वहीं पर विश्व के सारभूत परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार करते हुए हंस तज्जन्य ब्रह्मानन्द का अनुभव करते हुए निवास करते रहते हैं ।
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हठयोगदीपिका में –
प्राणवायु जब सुषुम्ना में चलता है और मन, देश, काल, वस्तु के परिच्छेद से शून्य ब्रह्म में प्रविष्ट हो जाता है । उस समय चित्त वृत्ति के निरोध का ज्ञाता योगी प्रारब्ध सहित संपूर्ण कर्मों को नष्ट कर देता है । स्वरुपावस्थिति रूप सहजावस्था, जिसको तुर्यावस्था जीवन्मुक्ति भी कहते हैं, वहां पर वैराग्य से, बिना ही प्रयत्न के, स्वयमेव साधक में प्रकट हो जाती है ।
(क्रमशः)

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