गुरुवार, 13 जून 2024

*कुसंगति कौ अंग*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*दादू विष की बेली बाहिये, विष ही का फल होइ ।*
*विष ही का फल खाय कर, अमर नहिं कलि कोइ ॥*
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*कुसंगति कौ अंग ॥छप्पय॥*
कुबुधि भोमि मन मूल तहाँ ऊगी बिष बेली ।
सांसा कै जल सींचि काम की कूँपल मेली ॥
पाप पानाँ पाँगरी ममित के फूल फुलेली ।
महकी बिषै सुबास सुंध्या जींनैं दुख देली ॥
ज्याँह ज्याँह भौराँ भोगवी चिर थिर हुवा न कोइ ।
बषनां बिष की बोलि का फल्ल हलाहल होइ ॥१॥
कुबुधि रूपी भूमि पर मन रूपी जड़ वाली एक विषवेलि उत्पन्न हुई जिसको संशय रूपी जल से सींचा गया । उसमें काम रूपी कोपलें उग आई ।
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पाप रूपी पत्र = पत्ते लहलहाने लगे । ममता रूपी फूल प्रस्फुटित होने लगे । विषय भोग रूपी सुगंधि महकने लगी । जिस किसी ने भी इस सुगंध को सूंघ लिया = विषय भोगों को भोग लिया, उसको विषय भोग दुख ही दुख देंगे ।
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जिन-जिन मनुष्यों रूपी भ्रमरों ने इस विषवेलि के पुष्प-गंध का उपभोग किया है उनमें से कोई एक भी स्थिर चित्त नहीं हुआ है क्योंकि इस विषवेलि का फल सदैव हलाहल-कालकूट जहर ही होता है ॥१॥
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इति बिषबेली कौ अंग संपूर्ण ॥अंग ११८॥साषी २२४॥
(क्रमशः)

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