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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४३. गूढ़ अर्थ कौ अंग ८९/९२*
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मोह माया माँहै बसै, आ हरि उपजै आस ।
बिलसै बांणी बेखरी३, सु कहि जगजीवनदास ॥८९॥
{३. बेखरी=वैखरी(जिह्वा, कण्ठ के सहारे बोली जाने वाली वाणी)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव मोह माया में फंसकर फिर भी प्रभु से उद्धार की आशा करता है । यह उसी प्रकार है जैसे मात्र स्वर से प्रार्थना हो शब्दों के बिना तो उसका कोइ प्रयोजन नहीं होता है ।
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सं संस्क्रित सुमिरण अलख, प हरि प्रीतम रांम ।
ति त्रिभुवनपति निरखि घरि, जगजीवन भजि नांम ॥९०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि संस्कृत में कितने ही ग्रन्थों में प्रभु नामों का उल्लेख है । जिससे प्रियतम प्रभु से सानिध्य बनता है । हे जीव तीनों लोकों के स्वामी के दर्शन कर प्रभु का स्मरण करो ।
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बी विकल्प संकल्प सदा, प हरि काटो पाप ।
कहि जगजीवन ती त्रिगुंणी, ते तम४ टालौ आप ॥९१॥
(४. तम=अविद्यान्धकार)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु हमें संकल्प विकल्प से परे करो । हमारे पापों का नाश करो । आप अविद्या से उत्पन्न अज्ञान को दूर करो जो सत रज व तम गुणों से आता है ।
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हरि हरि हरि हरि हेत हरी, हरि हारी रांम निवास ।
बांणी मंहि त्रिभुवन धणीं, सु कहि जगजीवनदास ॥९२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु नाम आधार है वह ही स्नेह योग्य है । वह ही हमारी वाणी में हो ऐसा संत कहते हैं ।
(क्रमशः)
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