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*कौंण सभा मैं सोहै रे ।*
*जाकी निर्मल बाणी मोहै रे ॥*
*भरि भरि प्रेम पिलावै रे ।*
*कोइ दादू आणि मिलावै रे ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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दादू ने कहा था:
देह पड़न्ता दादू कहे, सौ बरसां एक संत।
रैन नगर में परगटे, तारे जीव अनंत॥
दरिया का जन्म सौ साल बाद हुआ, रैन नगर में हुआ।
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संत प्रेमजी महाराज दादू के शिष्य थे। इस बात की पूरी-पूरी संभावना है कि दादू ने जो घोषणा की थी वह दरिया के संबंध में ही थी। क्योंकि दादू के ही एक प्रेमी से फिर द्वार मिला। दादू-पंथी तो मानते हैं कि दरिया दादू के ही अवतार एक प्रेमी से फिर द्वार मिला। दादू-पंथी तो मानते हैं कि दरिया दादू के ही अवतार हैं। एक अर्थ में ठीक भी हैं क्योंकि जो दादू ने कहा, जिस प्रेम की महिमा दादू ने गाई है, उसी महिमा को दरिया ने भी गाया है।
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एक अर्थ में प्रेम के सभी अवतार प्रेम के ही अवतार हैं। व्यक्तियों के थोड़े ही अवतरण होते हैं, सत्यों के अवतरण होते हैं।
गिरती है मेरी देह, मगर गिरते समय एक घोषणा किए जाता हूं–सौ बरसां एक संत… सौ बरस बाद आएगा एक संत; रैन नगर में परगटे, तारे जीव अनंत। बहुत लोगों को उससे उद्धार होगा। रोते हुए शिष्यों को कहा था कि घबड़ाओ मत मेरे जाने से कुछ जाना नहीं हो जाता, कोई और भी आनेवाला है, प्रतीक्षा करना।
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फिर दरिया का आगमन–एक धुनिया। लेकिन बचपन से एक ही रस, एक ही लगाव। न स्कूल गए, न भेजे गए स्कूल, न कुछ पढ़ा, न लिखा। हस्ताक्षर भी कर नहीं सकते थे। जैसा कबीर ने कहा है, मसी कागद छुओ नहीं–कभी कागज छुआ नहीं, स्याही छुई नहीं, ठीक वैसे ही, ठीक कबीर जैसे ही।
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कहा है दरिया ने कहा जो धुनिया तो भी मैं राम तुम्हारा। मान कि धुनिया हूं, कुछ पढ़ा-लिखा नहीं, कुछ सूझ-बूझ नहीं है, अज्ञानी हूं–इससे क्या फर्क पड़ता है ! जो धुनिया तो भी मैं राम तुम्हारा लेकिन हूं तो तुम्हारा ! भक्त कहता है, मैं क्या हूं यह तो बात ही व्यर्थ है; तुम्हारी कृपा-दृष्टि मेरी तरफ है, बस सब हो गया। अहंकारी और भक्त का यही भेद है।
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अहंकारी कहता है मैं कुछ हूं, देखो पढ़ा-लिखा हूं, धनी हूं, पद प्रतिष्ठा है, चरित्रवान हूं, त्यागी हूं, ऐसा हूं, वैसा हूं। अहंकारी दावा करता है। भक्त कहता है, जो धुनिया…मैं तो धुनिया , मैं तो कुछ भी नहीं, मेरी तरफ तो कोई गुणवत्ता नहीं है, तो भी मैं राम तुम्हारा। लेकिन मेरी इतनी गुणवत्ता है, कि मैं तुम्हारा हूं। और यह बड़ी से बड़ी गुणवत्ता है, अब और क्या चाहिए ? इससे ज्यादा मांगना भी क्या है, इससे ज्यादा होना भी क्या है? इतना ही हो जाए कि तुम राम की तरफ हो जाओ, तो तुम्हारे अंधेरे में रोशनी आ जाएगी। इतनी धारणा ही बनने से सब क्रांति घट जाती है, सारा पलड़ा बदल जाता है।
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देखा प्रेमजी महाराज को और घटना घट गई: खोजते थे…
कोई दिल-सा दर्दआशना चाहता हूं
रहे इश्क में रहनुमा चाहता हूं
प्रेम के रास्ते पर कोई पथ-प्रदर्शक खोजते थे।
कोई दिल-सा दर्दआशना चाहता हूं
रहे इश्क में रहनुमा चाहता हूं
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गए बहुत पंडितों के पास, लेकिन प्रेम के मार्ग पर पंडित से क्या रोशनी मिले ! थोथे शब्दों का जाल ! दीवानगी नहीं, मस्ती नहीं, मदिरा नहीं। और भक्त शराब की बातें करने में उत्सुक नहीं होता, भक्त शराब पीने में उत्सुक होता है। पंडित शराब की बातें करते हैं, विश्लेषण करते हैं, चर्चा करते हैं, पीते इत्यादि कभी नहीं। कंठ को कभी शराब ने छुआ ही नहीं, आंख से कभी आंसू नहीं ढलके और न कभी पैरों में घूंघर बंधे, न कभी नाचे मस्त होकर, न कभी गुनगुनाए, कभी अपने को डुबाया नहीं। सारा पांडित्य अहंकार की सजावट है, शृंगार है।
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जैसे ही देखा प्रेमजी महाराज को, कोई कली खिल गई, बंद कली खिल गई।
ऐसा बहुत बार हुआ है मनुष्य के आध्यात्मिक जीवन के इतिहास में। अगर कोई व्यक्ति बुद्ध के चरणों में बैठा हो और बुद्ध से कुछ सीखा हो, कुछ पाठ लिया हो, फिर बुद्ध विदा हो जाए–तो यह व्यक्ति उस पाठ को अपने भीतर दबाए हुए, अपने अचेतन में संभाले हुए भटकता रहेगा, खोजता रहेगा; जब तक इसे फिर कोई बुद्ध जैसा व्यक्ति न मिल जाए, तब तक इसकी चिनगारी दबी रहेगी।
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बुद्ध जैसे व्यक्ति के पास आते ही लौ प्रगट हो जाएगी। पास आते ही ! सन्निकट मात्र–और भभककर जलने लगेगी रोशनी। कोई व्यक्ति अगर कृष्ण के पास रहा हो तो जन्मों-जन्मों तक वह फिर उन्हीं की तलाश करेगा–जाने-अनजाने, होश में बेहोशी में, जागते-सोते, वह कृष्ण को टटोलेगा। और जब तक कोई कृष्ण जैसा व्यक्ति फिर उसके पास न आ जाए तब तक उसका दिया बुझा रहेगा।
ओशो
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