मंगलवार, 18 जून 2024

*(४)गुह्यकथा । श्रीरामकृष्ण कौन हैं ।*

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*दादू जल में गगन,*
*गगन में जल है, पुनि वै गगन निरालं ।*
*ब्रह्म जीव इहिं विधि रहै, ऐसा भेद विचारं ॥ *
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(४)गुह्यकथा । श्रीरामकृष्ण कौन हैं ।*
भक्तगण चुपचाप बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण भक्तों को स्नेहभरी दृष्टि से देख रहे हैं । कुछ कहने के लिए उन्होंने अपनी छाती पर हाथ रखा ।
श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्रादि से) - इसके भीतर दो व्यक्ति हैं । एक हैं जगन्माता-
भक्त उनकी ओर उत्सुक होकर देख रहे हैं, सोच रहे हैं, अब वे क्या कहेंगे ।
श्रीरामकृष्ण - हाँ एक वे हैं, और दूसरा है उनका भक्त, जिसका हाथ टूट गया था । वही अब बीमार है । समझे ?
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भक्तगण चुपचाप सुन रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - किससे कहूँ, और समझेगा भी कौन ?
कुछ देर बाद फिर बोले –
"वे मनुष्य का आकार धारण करके, अवतार लेकर, भक्तों के साथ आया करते हैं । उन्हीं के साथ फिर भक्तगण चले भी जाते हैं ।"
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राखाल - इसीलिए कहता हूँ आप हम लोगों को छोड़कर चले मत जाइयेगा ।
श्रीरामकृष्ण मुस्करा रहे हैं, कहते हैं - "बाउलों का दल एकाएक आया, नाच-कूदकर गाया-बजाया और एकाएक चला गया । आया और गया, परन्तु किसी ने पहचाना नहीं ।"
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श्रीरामकृष्ण और दूसरे भक्त मन्द मन्द मुस्करा रहे हैं ।
कुछ देर चुप रहकर श्रीरामकृष्ण फिर कह रहे हैं –
"देह धारण करने पर कष्ट तो है ही ।
"कभी कभी कहता हूँ, अब जैसे इस संसार में न आना पड़े ।
"परन्तु एक बात है - निमन्त्रण में भोजन करते करते अब घर की बनी मटर की दाल अच्छी नहीं लगती, न घर के चावल ही अच्छे लगते हैं ।
"और देह-धारण भक्तों के लिए है ।"
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श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र को स्नेह-भरी दृष्टि से देख रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र से) - चाण्डाल माँस का भार लिये हुए जा रहा था । उधर से नहा-धोकर शंकराचार्य आ रहे थे, वे उसके पास से होकर निकले । एकाएक चाण्डाल ने उन्हें छू लिया । शंकर ने विरक्ति-भाव से कहा - 'तूने मुझे छू लिया !' उसने कहा, 'भगवन्, न मैंने आपको छुआ और न आपने मुझे । विचार कीजिये, विचार कीजिये, क्या आप देह हैं, मन हैं या बुद्धि हैं ? आप क्या हैं - विचार कीजिये । शुद्ध आत्मा निर्लिप्त है - सत्व, रज और तम इन तीनों गुणों में से किसी में लिप्त नहीं है ।'
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"ब्रह्म कैसा है, जानता है ? - जैसे वायु । वायु में सुगन्ध और दुर्गन्ध दोनों है, परन्तु वायु निर्लिप्त है ।"
नरेन्द्र - जी हाँ ।
श्रीरामकृष्ण - वे गुणातीत हैं, माया से परे हैं । अविद्या-माया और विद्या-माया इन दोनों से परे हैं । कामिनी और कांचन अविद्या है; ज्ञान, भक्ति, वैराग्य ये सब विद्या के ऐश्वर्य हैं । शंकराचार्य ने विद्या का ऐश्वर्य रखा था । तुम सब लोग जो मेरे लिए सोच रहे हो, यह चिन्ता विद्या-माया है ।
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“विद्या-माया के सहारे चलते रहने पर ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति होती है । जैसे ऊपरवाली सीढ़ी, उसके बाद ही छत । कोई कोई छत पर पहुँचने के बाद भी सीढ़ियों से चढ़ते-उतरते रहते हैं - ज्ञानप्राप्ति के बाद भी 'विद्या का मैं' रख छोड़ते हैं - लोकशिक्षा के लिए और भक्ति का स्वाद लेने तथा भक्तों के साथ विलास करने के लिए भी ।”
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नरेन्द्र - त्याग करने की बात चलाने से कोई कोई मुझसे नाराज हो जाते हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (धीमे स्वर से) - त्याग आवश्यक है ।
श्रीरामकृष्ण अपने शरीर के अंगों को दिखलाकर कह रहे हैं - "एक वस्तु के ऊपर अगर दूसरी वस्तु हो, तो एक को बिना हटाये दूसरी वस्तु कैसे मिल सकती है ?"
नरेन्द्र - जी हाँ ।
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श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र से, धीमे स्वर में) - ईश्वरमय देखते रहने पर क्या फिर कोई दूसरी चीज दिखलायी पड़ सकती है ?
नरेन्द्र - संसार का त्याग करना ही होगा ?
श्रीरामकृष्ण - जैसा मैंने अभी कहा, ईश्वरमय देखते रहने पर फिर क्या दूसरी वस्तु दीख पड़ती है ? संसार आदि क्या कुछ दिखलायी पड़ सकता है ?
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“परन्तु त्याग मन से होना चाहिए । यहाँ जो लोग आते हैं, उनमें संसारी कोई नहीं है । किसी किसी की इच्छा थी – स्त्री के साथ रहने की - (राखाल और मास्टर का हँसना) वह भी पूरी हो गयी ।"
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श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र को स्नेहपूर्ण दृष्टि से देख रहे हैं । देखते ही देखते मानो आनन्द से पूर्ण हो गये । भक्तों की ओर देखकर कहने लगे - "खूब हुआ ।" नरेन्द्र ने हँसकर पूछा - "क्या खूब हुआ ?"
श्रीरामकृष्ण - (मुस्कराते हुए) - मैं देख रहा हूँ कि महान् त्याग के लिए तैयारी हो रही है ।
(क्रमशः)
 

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