मंगलवार, 18 जून 2024

*सुनत सूर की काव्य कवि*

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*दादू राम हृदय रस भेलि कर, को साधु शब्द सुनाइ ।*
*जानो कर दीपक दिया, भ्रम तिमिर सब जाइ ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*छप्पय-*
*सूरदास*
*सुनत मूर की काव्य कवि, शिर धुनै रु धनि धनि करै ॥*
*रामायण भागोत१, भक्ति दशधा सुन सारी ।*
*सु प्रस्ताव२ को पुंज, चोज३ चुण काढ़ी न्यारी ॥*
*सकल प्राकृत संस्कृत, सिन्धु सम मध्यो सवायो४ ।*
*करुणा प्रेम वियोग, आदि अनुक्रम से गायो ॥*
*बालमीक कृत व्यासकृत, राघव पद पटतर५ धेरै ।*
*सुनत सूर की काव्य कवि, शिर धुनै रु धनि धनि करै ॥२९५॥*
सूरदासजी की कविता सुनकर कवि जन प्रशंसा पूर्वक अपना मस्तक हिला कर धन्य धन्य शब्द उच्चारण करते हैं । रामायण और श्रीमद्भागवत१ से आपने नव प्रकार नवधा और एक प्रेमा, इस दश प्रकार की भक्ति की सारी कथा सुनी थी ।
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अच्छे प्रसंगों२ की तो आप राशि ही थे । आपने अपनी कविता में चातुर्य३ पूर्ण नवीन युक्तियाँ निकाली हैं अर्थात् कही हैं । जैसे समुद्र मन्थन करके रत्न निकाले थे, वैसे ही आपने संपूर्ण प्राकृत और संस्कृत भाषा को सुन्दर४ ढंग से मथ कर शब्द रूप रत्न निकाले हैं अर्थात् सुन्दर शब्दों का प्रयोग अपनी रचना में किया है ।
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अपनी रचना में करुणा, प्रेम, विरह-वियोग आदि अनुक्रम से गायन किये हैं । वाल्मीकि और व्यासजी की रचना के बराबर५ ही कवि जन आप के पदों को रखते हैं ॥२९५॥
(क्रमशः)

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