सोमवार, 3 जून 2024

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*केते मर मांटी भये, बहुत बड़े बलवन्त ।*
*दादू केते ह्वै गये, दाना देव अनन्त ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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कहते हैं : जरा सोचो, जरा देखो ! लौट कर पीछे देखो, क्या — क्या गुजरती रही। दुर्योधन ने कृष्ण के बीच में पड़ने पर भी, जरा — सी जमीन न दी, पांच डग जमीन न दी ! ऐसा मोह पत्थरों का कि परमात्मा सामने खड़ा हो तो भी लोग पत्थर चुनते हैं, परमात्मा नहीं चुनते।
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सौ भइया की बांह तपै दुर्जोधन राना।
परे नरायन बीच, भूमि देते गरबाना॥
लेकिन भूमि देने में अहंकार आ गया। उसने कहा कि एक इंच जमीन नहीं दूंगा। एक सूई की नोक— भर जमीन नहीं दूंगा। तुम भी क्या कर रहे हो। किसकी जमीन। कहां से लाए। कहां ले जाओगे। क्यों इतने लड़े— मरे जा रहे हो।
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ये कथाएं ऐतिहासिक नहीं हैं। इन कथाओं का मौलिक आधार मनोवैज्ञानिक है। इन सारी कथाओं के पीछे मनोविज्ञान के आधार हैं। यही तो हम कर रहे हैं। यही तो सारी दुनिया कर रही : कैसे हमारी जमीन बढ़े, कैसे धन बढ़े, कैसे बैंक में बैलेंस बढ़े ! 
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और अगर राम भी बीच में आकर खड़ा हो जाए, और कहे कि भई इतना नहीं, इतना ज्यादा न करो, इतना मत चूसो, इतने अहंकार से मत भरो, इस पद—प्रतिष्ठा में कुछ सार नहीं है, यह सब पड़ा रह जाएगा, जब बांध चलेगा बंजारा ! सब पड़ा रह जाएगा !… 
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मगर कौन सुनता है, कब सुनता है। बुद्ध आए और कहते रहे, महावीर आए और कहते रहे। कौन सुनता है। हम अपनी धुन में लगे रहते हैं। हम पत्थर ही इकट्ठे करते रहते हैं। यही पत्थर हमें बारबार डुबाते हैं।
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जुद्ध रचो कुरुक्षेत्र में बानन बरसे मेह। जरा—सी जमीन के ऊपर… पांडव पांच गांव लेने को राजी थे… जरा—सी जमीन के ऊपर भयंकर युद्ध हुआ। आकाश से जैसे वर्षा होती है जल की, ऐसे बाण बरसे, ऐसी मृत्यु बरसी।
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तिनहीं के अभिमान तें गिधहुं न खायो देह।
और वे जो इतनी अकड़ से भरे थे, जब गिरे जमीन पर, तो इतनी लाशें पट गई थीं महाभारत के युद्ध में कि गिद्धों को भी खाने में रस नहीं रहा था, उत्सुकता नहीं रही थी।
तिनहीं के अभिमान तें गिधहुं न खायो देह।
जो इतने अहंकारी थे, ऐसा सिर उठा कर चले थे, गिद्धों ने भी उनके सिर को खाने योग्य न समझा।
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यही पत्थर हम इकट्ठे कर रहे हैं।
नाम झांझरी साजि बाधि बैठो बैपारी।
बोझ लयो पाषान मोहि हर लागै भारी॥
एक नाम केवटिया कर ले सोइ लावै तीर।
मांझ धार भवतखत में आइ परैगी भीर॥
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जोधा आगे उलट पुलट यह पुहमी करते। देखते हो, युद्ध चलते हैं ! युद्ध हैं क्या। जोधा आगे उलट—पुलट यह पुहमी करते। बस नहिं रहते सोय, छिने इक बल में जाता है, सारी सामर्थ्य खो जाती है। बस उन्हीं पत्थरों के लिए संघर्ष चल रहा है।
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ऐसे बड़े योद्धा, जो पृथ्वी को उलट—पुलट देते हैं। रहते। और जब मौत आती है, तो सारा वश खो जाता है, सारी सामर्थ्य खो जाती है । मैंने सुना है, नेपोलियन जब हार गया तो सेंट हेलेना के द्वीप में उसे कैदी किया गया। पहले ही दिन सुबह नेपोलियन अपने डाक्टर को लेकर घूमने निकला है, और एक घसियारिन औरत अपना बड़ा घास का गट्ठर लिए पगडंडी पर चली आ रही है। 
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डाक्टर ने चिल्लाकर कहा कि ऐ स्त्री, हट जा रास्ते से ! देखती नहीं, कौन आ रहा है ! सम्राट नेपोलियन आ रहे। नेपोलियन ने डाक्टर का हाथ खींच कर रास्ते से नीचे उतर गया। और कहा : तुम भूलते हो। तुम चूकते। अब वे दिन गए, जब नेपोलियन पहाड़ से कहता कि हट जा रास्ते पहाड़ हटता। अब तो घसियारिन भी हम से कह सकती है——हट जाओ रास्ते से !… वक्त आ ही  जाता है।
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जोधो आगे उलट—पुलट यह पुहमी करते।
बस नहिं रहते सोय, छिने इक बल में रहते॥
सौ जोजन मरजाद सिंध के करते एकै फाल।
और जो समुद्रों को एक छलांग में लांघ जाते हैं, ऐसे बलशाली ! हाथ न पर्वत तौलते…. पर जो पर्वतों को तौल लेते हैं… तिन धरि खायो काल… मौत जब आती है, नहीं चलता कि मौत के दांतों में कहां खो जाते हैं !
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मत इकट्ठे करो पत्थर।
अब हम सांची कहत हैं उडियो पंख पसार।
छुटि जैहो या दुःख ते तन सरवर के पार॥
ऐसा यह संसार रहट की जैसी घरियां।
कुएं पर चलती रहट देखी है—घरियों से बनी रहट !
ऐसा यह संसार रहट की जैसे घरिया।
इक रीती फिरि जाय एक आवै फिरि भरियां॥
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एक खाली होती है, दूसरी भरी आ जाती है। फिर एक खाली होती है, दूसरी भरी आ जाती है। ऐसा यह संसार…। एक वासना चुकी कि दूसरी आई। एक जन्म चुका कि दूसरा जन्म आया। एक संबंध टूटा कि दूसरा संबंध बना। एक कता से बचे कि दूसरी कता आई।
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ऐसा यह संसार रहट की जैसे घरिया।
इक रीती फिरि जाय एक आवै फिरि भरियां॥
उपजि उपजि विनसत करै फिरि फिरि जमै गिरास।
और कितनी बार तुम उठ चुके और कितनी बार तुम गिर चुके ! अंत है कुछ ? गणना की जा सकती है कुछ ? कितनी बार तुम जन्मे और कितनी बार तुम मरे ! हिसाब तो करो ! लौट कर थोड़ा सोचो तो !
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उपजि उपजि विनसत करै फिरि फिरि जमै गिरास।
बारबार जन्म और बारबार मृत्यु ! सार क्या पाया ? हाथ क्या लगा ?
यही तमासा देखि कै मनुवा भयो उदास।
धनी धरमदास कहते हैं : यह तमाशा देखकर ही तो हम जीवन से उदास हुए। यह देखकर ही, यह तमाशा देखकर ही तो हम दूर हुए जीवन से और हमने उसकी तलाश करनी शुरू की जो अमृत है——जहां न जन्म है न मृत्यु है, जो आवागमन से पार है।
ओशो

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