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*दादू राम हृदय रस भेलि कर,*
*को साधु शब्द सुनाइ ।*
*जानो कर दीपक दिया, भ्रम तिमिर सब जाइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ शब्द का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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सवैया ग्रंथ भाग ३
साधु का अंग ६
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सुध बुध१ आप भजै भगवंतहि,
श्रेष्ठ सु काज अनन्त के सारै२ ।
विप्र की मींच भई अपने जिये३,
शूर संग्राम किसे नर मारे ॥
पावक आप पचै४ जु पतंगा हो,
चूहे की आगि घनेने घर जारै ।
हो रज्जब पान तिरे अपने अंग,
वोहिथ वीर बहुत वपु तारै ॥७॥
शुद्ध बुद्धि१ साधारण नर तो भगवद् भजन करके अपना ही मुक्ति रूप कार्य सिद्ध करता है किंतु श्रेष्ठ संत अनेकों का मुक्ति रूप कार्य सिद्ध२ करके मुक्त होते हैं । ब्रह्मण की तो मृत्यु अपने मन३ में अर्थात अपने आप ही हो जाती है किंतु शूर-वीर तो संग्राम में बहुतों को मार कर मरता है ।
पतंग तो अग्नि में जाकर आप ही जल४ जाता है । किंतु चूहा जलते हुवे दीपक की बती को पीछे से पकड़ कर छप्पर में जाता है तब वह अग्नि बहुत से घर जला डालता है । पत्ता तो अपने आकार रूप शीर से ही तैरता है किंतु जहाज तो बहुत से शरीरों को तारता है । वैसे ही ज्ञान वीर संत बहुतों का उद्धार करते हैं ।
(क्रमशः)

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