मंगलवार, 4 जून 2024

*श्री रज्जबवाणी, साधू का अंग(६)*

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*दादू चन्दन कद कह्या, अपना प्रेम प्रकाश ।*
*दह दिशि प्रगट ह्वै रह्या, शीतल गंध सुवास ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साधु का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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सवैया ग्रंथ भाग ३
साधु का अंग (६)
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साधु की दृष्टि सौं साधु को देखिये,
जे हौंहि आंखि सों आखिन सानी । 
दीप उपदीप सों दीपक देखिये 
प्राणि पतंग ने ज्योति यूं जानी ॥
चन्द्र सु कांति लखै चखि चन्द्र हि 
चाहि चकोर सुधा रति मानी । 
हो रज्जब सूर हिं सूर दिखावत 
बात सु परकट है नहिं छानी ॥१॥
साधु सबन्धी विचार प्रकट कर रहे हैं, 
साधु की दृष्टि से साधु को देखा जाता है, यदि साधु की सी दृष्टि होती है तो आँखो से आँखे मिलते ही पहचान हो जाती है । 
प्रज्वलित दीपक से दीपक देखा जाता है । ऐसे ही अर्थात प्रदीप्त होने से ही पतंग ज्योति को जानता है और प्रख्यात होने से ही प्राणी संत को जानता है । 
चन्द्र की सुकांति से ही चकोर अपने नैत्रों से चन्द्रमा को देखकर ही चन्द्रामृत के पान में प्रीति करना स्वीकार करता है । 
हे सज्जनों ! सूर्य को सूर्य का प्रकाश ही दिखता है, यह बात सु प्रकट है, छिपी हुई नहीं है वैसे ही संत की योग्यता ही संत को दिखाती है । 
(क्रमशः)

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