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*बाजी चिहर रचाय कर, रह्या अपरछन होइ ।*
*माया पट पड़दा दिया, तातैं लखै न कोइ ॥*
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साभार ~ श्री
महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*परिच्छेद १३४~श्रीरामकृष्ण कौन हैं ?*
*(१)ज्ञानयोग तथा भक्तियोग का
समन्वय*
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श्रीरामकृष्ण काशीपुर के बगीचे में भक्तों के साथ बड़े कमरे में रहते हैं ।
रात के आठ बजे का समय होगा । कमरे में नरेन्द्र, शशि, मास्टर, बूढ़े गोपाल और शरद हैं । आज बृहस्पतिवार है, फाल्गुन की
शुक्ला षष्ठी, ११ मार्च, १८८६ ।
श्रीरामकृष्ण अस्वस्थ हैं, जरा लेटे हुए हैं । पास ही भक्तगण बैठे हैं । शरद खड़े हुए
पंखा झल रहे हैं । श्रीरामकृष्ण बीमारी की बातें कह रहे हैं ।
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श्रीरामकृष्ण - भोलानाथ के पास जाना, वह तेल देगा; और किस तरह लगाया जाय, यह भी बतला देगा ।
बूढ़े गोपाल - तो कल सबेरे हम लोग जाकर ले आयेंगे ।
मास्टर - यदि कोई आज शाम को जाय तो वही ले आयगा ।
शशि - मैं जा सकता हूँ ।
श्रीरामकृष्ण - (शरद की ओर दिखाकर ) - वह जा सकता है ।
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शरद कुछ देर बाद दक्षिणेश्वर मन्दिर के मुहर्रिर श्रीयुत भोलानाथ मुखोपाध्याय
के पास से तेल लाने के लिए गये ।
श्रीरामकृष्ण लेटे हुए हैं । भक्तगण चुपचाप बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण एकाएक
उठकर बैठे गये । नरेन्द्र के साथ वार्तालाप करने लगे ।
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श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र से) - ब्रह्म अलेप हैं । उनमें तीनों गुण हैं; किन्तु फिर भी
वे निर्लिप्त हैं ।
"जैसे वायु में
सुगन्ध और दुर्गन्ध दोनों मिलती हैं, परन्तु वायु निर्लिप्त है ।
"काशी में रास्ते से शंकराचार्य जा रहे थे । उधर से माँस का भार लेकर
चाण्डाल आया और एकाएक उसने इन्हें छू लिया । शंकर ने कहा, 'छू लिया !' चाण्डाल ने कहा, ‘भगवन्, न आपने मुझे छुआ और न मैंने आपको । आत्मा निर्लिप्त है । आप
वही शुद्ध आत्मा हैं ।’
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“ब्रह्म और माया । ज्ञानी माया को अलग कर देता है ।
"माया पर्दे की
तरह है । यह देखो, इस अँगौछे की आड़ कर देता हूँ । अब तुम दीपक की लौ नहीं देख सकते ।"
श्रीरामकृष्ण ने अपने तथा भक्तों के बीच अंगौछे की आड़ करके कहा, "यह देखो, अब तुम मेरा
मुँह नहीं देख सकते ।
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"रामप्रसाद ने
जैसा कहा है, 'मसहरी उठाकर
देखो –’
"परन्तु भक्त माया को नहीं छोड़ता । वह महामाया की पूजा करता है । शरणागत
होकर कहता है, 'माँ, रास्ता छोड़ दो, तुम जब रास्ता
छोड़ोगी, तभी मुझे
ब्रह्मज्ञान होगा !' जाग्रत, स्वप्न और
सुषुप्ति - इन तीनों अवस्थाओं को ज्ञानी अस्तित्वहीन कहकर हटा देते हैं । भक्त इन
सब अवस्थाओं को लेते हैं - जब तक 'मैं' है, तब तक ये सब हैं ।
"जब तक 'मैं' है, तब तक भक्त देखता है, जीव-जगत्, माया और चौबीस तत्त्व, सब कुछ वे ही हुए हैं ।"
(क्रमशः)
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