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*जब निराधार मन रह गया, आत्म के आनन्द ।*
*दादू पीवे रामरस, भेटे परमानन्द ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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सूफियों की कहानी है: लैला-मजनू। कहानी से तुम परिचित हो। लेकिन उसमें जो सूफियाना माधुर्य भरा है, उससे तुम परिचित नहीं हो। मजनू है साधक, लैला है भगवान। वह सूफियों का प्रतीक है। क्योंकि सूफी परमात्मा को स्त्री के रूप में देखते हैं, प्रेयसी के रूप में देखते हैं। पुरुष के रूप में नहीं।
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लैला प्रतीक है परमात्मा की। लैला शब्द का अरबी में अर्थ होता है: रात्रि, घनी रात्रि। परमात्मा बड़ी अंधेरी रात जैसा है। अंधेरी रात में उतरने का साहस है, तो ही तुम मजनू हो सकोगे। और मजनू हो तो ही अंधेरी रात में उतर सकोगे। मजनू ही लैला को खोज सकता है।
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मजनू का अर्थ होता है: दीवाना, पागल। कौन जाता है अंधेरी रात में ! कौन जाता है--अपने आंगन की साफ-सुथरी दुनिया को छोड़ कर घने जंगलों में भटकने ! कौन जाता है--व्यवस्था को छोड़ कर अराजकता में उतरने ! कौन जाता है नक्शों की दुनिया को छोड़ कर, नक्शे-रहित अस्तित्व में प्रवेश करने ! कौन छोड़ता है सुरक्षा !
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जो सुरक्षा छोड़ देता है--वही संन्यासी। जो सुरक्षा को पकड़ कर जीता है, वही गृहस्थ है। घर यानी सुरक्षा का प्रतीक। अपनी जमीन है, अपना मकान है, अपनी दीवाल है, अपना द्वार, अपना दरवाजा। रात ताला मार कर सो जाते हैं। सुरक्षा है। धन जमीन में गड़ा है; पत्नी-बच्चे निकट हैं, अपने पास हैं। दूसरों का क्या भरोसा है ! बाहर कौन अपना है ! सब अजनबी हैं। कौन धोखा दे जाए, किसको पता है !
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जो सुरक्षा छोड़ देता है--वही संन्यासी। जो सुरक्षा को पकड़ कर जीता है, वही गृहस्थ है। घर यानी सुरक्षा का प्रतीक। अपनी जमीन है, अपना मकान है, अपनी दीवाल है, अपना द्वार, अपना दरवाजा। रात ताला मार कर सो जाते हैं। सुरक्षा है। धन जमीन में गड़ा है; पत्नी-बच्चे निकट हैं, अपने पास हैं। दूसरों का क्या भरोसा है ! बाहर कौन अपना है ! सब अजनबी हैं। कौन धोखा दे जाए, किसको पता है !
गृहस्थ का अर्थ इतना ही नहीं होता कि जो घर में रहता है। वह तो ऊपरी प्रतीक है। गृहस्थ का अर्थ होता है: जो सुरक्षा में रहता है; जो असुरक्षा में जरा नहीं जाता; जहां देखता है अंधेरा है, वहां से लौट आता है; जहां देखता है यहां खतरा है, वहां कदम नहीं मारता; जहां देखता है यहां जीवन दांव पर लगाना पड़ेगा, उस तरफ तो फिर कभी नहीं जाता; जहां कुछ भी दांव पर लगाना हो, जाता ही नहीं।
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फिर स्वभावतः अगर तुम कोल्हू के बैल की तरह जीते हो तो कुछ आश्चर्य नहीं है। उसी रास्ते पर बार-बार परिक्रमा काटते रहते हो--कोल्हू के बैल! जाना-माना रास्ता। जाने-माने ढंग। सब सुरक्षित, सब व्यवस्थित। कोई खतरा नहीं, कोई भय नहीं। घूमते रहते हो, घूमते-घूमते मर जाते हो। यह कोई जीवन नहीं है।
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जीवन तो अभियान में है। जीवन तो वहां है जहां तुम रोज जाने-माने को छोड़ देते हो, जहां तुम रोज नये हो जाते हो। जीवन तो वहां है जहां तुम अपने बालक मन के आश्चर्य को खोते ही नहीं; तुम सदा युवा बने रहते हो; तुम्हारी आंखें सदा तलाशती रहती हैं, खोजती रहती हैं; तुम चुनौती की प्रतीक्षा करते हो--जीवन वहां है। सुरक्षा की नहीं--चुनौती की। कोई चुनौती आए। कोई कठिनाई उठे। क्योंकि कठिनाइयों की सीढ़ियों पर ही चढ़ कर कोई जीवन के उत्तुंग शिखर पर चढ़ता है।
ओशो ~ अजहु चेत गंवार 21

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