गुरुवार, 20 जून 2024

वीरभाव, सखीभाव - सब भाव

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*सुरति पुकारै सुन्दरी, अगम अगोचर जाइ ।*
*दादू विरहनी आत्मा, उठ उठ आतुर धाइ ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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नरेन्द्र और भक्तगण चुप हैं । सब के सब श्रीरामकृष्ण को देख रहे हैं ।
अब राखाल बातचीत करने लगे ।
राखाल - (श्रीरामकृष्ण से, सहास्य) - नरेन्द्र ने आपको खूब समझ लिया है ।
श्रीरामकृष्ण हँसकर कह रहे हैं - "हाँ । और देखता हूँ, बहुतों ने समझ लिया है । (मास्टर से) क्यों जी ?"
मास्टर - जी हाँ ।
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श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र और मणि को देख रहे हैं और हाथ के इशारे राखाल आदि भक्तों को दिखा रहे हैं । पहले नरेन्द्र की ओर इशारा करके दिखलाया, फिर मास्टर की ओर । राखाल श्रीरामकृष्ण का इशारा समझ गये । उन्होंने कहा - "आप कहते हैं, नरेन्द्र का वीर-भाव है और इनका (मास्टर का) सखी-भाव ।” (श्रीरामकृष्ण हँस रहे हैं)
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नरेन्द्र - (सहास्य) - ये अधिक बोलते नहीं, और स्वभाव के लजीले हैं । शायद इसीलिए आप ऐसा कहते हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र से, हँसकर) - अच्छा, मेरा क्या भाव है ?
नरेन्द्र - वीरभाव, सखीभाव - सब भाव ।
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यह सुनकर मानो श्रीरामकृष्ण को भावावेश हो गया । हृदय पर हाथ रखकर कुछ कहनेवाले हैं ।
श्रीरामकृष्ण (नरेन्द्रादि भक्तों से) - देखता हूँ, जो कुछ है, सब इसी के भीतर से आया है ।
नरेन्द्र से इशारा करके श्रीरामकृष्ण पूछ रहे हैं, “क्या समझे ?”
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नरेन्द्र - जो कुछ है, अर्थात् सृष्टि में जो कुछ पदार्थ हैं, सब आपके भीतर से आया है ।ऑ॥॥
श्रीरामकृष्ण - (राखाल से, आनन्दपूर्वक) – देखा ?
श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र से जरा गाने के लिए कह रहे हैं । नरेन्द्र स्वर अलापकर गा रहे हैं । नरेन्द्र का त्याग-भाव है । वे गा रहे हैं –
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"नलिनीदलगतजलमतितरलम् ।
तद्वज्जीवनमतिशयचपलम् ॥
क्षणमिह सज्जनसंगतिरेका ।
भवति भवार्णवतरणे नौका ॥”....
दो-एक पद गाने के बाद ही श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र से इशारे से कह रहे हैं, "यह क्या है ? यह तो बहुत छोटा भाव है !"
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नरेन्द्र अब सखी-भाव का एक सुन्दर गीत गा रहे हैं –
(भावार्थ) - "अरी सखि ! जीवन और मृत्यु का यह कैसा विधान है ! व्रज-किशोर कहाँ भाग गये ? इस ब्रज-गोपी के तो प्राणों पर आ गयी है । सखि, माधव तो सुन्दर कन्याओं के प्रेम में बँधे हुए हैं । हाय ! इस रूपविहीन गोप-कन्या को उन्होंने भुला दिया है । अरी, कौन जानता था कि वे रसमय प्रेमिक रूप के भिखारी होंगे ?
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मैं मूर्ख थी जो पहले मैंने यह नहीं समझा; रूप देखकर भूल गयी, और उनके युगलचरणों को हृदय में स्थापित किया । री सखि, अब तो जी यह चाहता है कि यमुना में डूबकर मर जाऊँ या जहर लाकर खा लूँ, अथवा कुंजों की लताओं से गला फाँसकर किसी नये तमाल में लटककर प्राण दे दूँ, या श्याम-श्याम जपते-जपते इस अधम शरीर का नाश कर डालूँ ।"
गाना सुनकर श्रीरामकृष्ण और भक्तगण मुग्ध हो गये । श्रीरामकृष्ण और राखाल की आँखों से आँसू बह चले । नरेन्द्र व्रज की गोपियों के भाव में मस्त होकर फिर गा रहे हैं - (भावार्थ) –
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“हे कृष्ण ! प्रियतम ! तुम मेरे हो । तुमसे मैं क्या कहूँ, मेरे नाथ, तुमसे मैं क्या बोलूँ ? मैं नारी हूँ, अभागिनी हूँ, समझ नहीं पा रही हूँ कि मैं तुमसे क्या कहूँ । तुम मेरे हाथ के दर्पण हो, सिर के फूल हो । सखे, मैं तुम्हें फूल बनाकर केशों में खोंच लूँगी और खोपे में छिपा रखूँगी । श्याम-फूल खोंचने से तुम्हें कोई देख न पायेगा । तुम मेरी आँखों के अंजन हो, मुख के ताम्बूल हो ।
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हे श्याम ! हे कृष्ण ! तुम्हें अंजन बनाकर आँखों में लगा लूँगी । श्याम-अंजन होने के कारण तुम्हें वहाँ कोई देख न सकेगा । तुम अंग की कस्तूरी हो, गले के हार हो । सखे, शरीर में श्यामचन्दन लेपकर मैं अपने प्राण शीतल करूँगी । प्रियतम, तुम्हें मैं हार बनाकर कण्ठ में पहनूँगी । तुम देह के सर्वस्व हो, गेह के सार हो । पक्षी के लिए जिस तरह पंख हैं, और मछली के लिए जिस तरह पानी है, उसी तरह, हे नाथ, तुम मेरे लिए हो ।"
(क्रमशः)

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