शनिवार, 8 जून 2024

*मायावाद शुष्क है*

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*हरि तरुवर तत आत्मा, बेली कर विस्तार ।*
*दादू लागै अमर फल, कोइ साधू सींचनहार ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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नरेन्द्र तथा अन्य भक्त चुपचाप सुन रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - पर मायावाद शुष्क है । (नरेन्द्र से) मैंने क्या कहा, बतलाओ ।
नरेन्द्र - माया शुष्क है ।
श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र के हाथ और मुख का स्पर्श करके कहने लगे - "ये सब भक्तों के लक्षण हैं । ज्ञानियों के लक्षण और हैं - मुखाकृति में रूखापन रहता है ।
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"ज्ञान लाभ करने के बाद भी ज्ञानी विद्या-माया को लेकर रह सकता है - भक्ति, दया, वैराग्य, इन सब को लेकर रह सकता है । इसके दो उद्देश्य हैं । पहला, इससे लोक-शिक्षा होती है; दूसरा, रसास्वादन के लिए ।
"ज्ञानी अगर समाधि लगाकर चुप हो जाय, तो लोक-शिक्षा नहीं होती । इसीलिए शंकराचार्य ने ‘विद्या का मैं’ रखा था ।
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"और ईश्वरानन्द का भोग करने के लिए भक्त भक्ति लेकर रहता है ।
'इस 'विद्या के मैं' में या 'भक्ति के मैं' में दोष नहीं है । दोष तो 'बदमाश मैं' में है । उनके दर्शन करने के बाद बालक-जैसा स्वभाव हो जाता है । 'बालक के मैं' में कोई दोष नहीं है, जैसे आईने का प्रतिबिम्ब । वह लोगों को गालियाँ नहीं दे सकता । जली रस्सी देखने ही में रस्सी की तरह है । फूँकने से वह उड़ जाती है । इसी तरह ज्ञानी और भक्त का अहंकार ज्ञानाग्नि में जल गया है । अब वह किसी की क्षति नहीं कर सकता । वह 'मैं' नाममात्र के लिए है ।
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"नित्य में पहुँचकर फिर लीला में रहना । जैसे उस पार जाकर फिर इस पार लौटना । लोक-शिक्षा और विलास के लिए - उनकी लीला में सहयोग देने के लिए ।"
श्रीरामकृष्ण बड़े धीमे स्वर में वार्तालाप कर रहे हैं । वे कुछ देर चुप ही रहे । भक्तों से फिर कहने लगे –
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"शरीर को यह रोग है, परन्तु उसने(माता ने) अविद्यामाया नहीं रखी । देखो न, रामलाल, घर या स्त्री, इनकी मुझे याद भी नहीं आती । हाँ, यदि कोई चिन्ता है तो उसी पूर्ण नामक कायस्थ बालक की - उसी के लिए सोच रहा हूँ । औरों के बारे में तो मुझे कोई चिन्ता नहीं ।
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"विद्या-माया उन्हीं ने रख दी है - लोगों के लिए, भक्तों के लिए ।
"परन्तु विद्या-माया के रहते फिर आना पड़ता है । अवतार आदि विद्या-माया रख छोड़ते हैं । जरासी वासना के रहने पर फिर आना पड़ता है - बार बार आना पड़ता है । सब वासनाओं के मिट जाने पर मुक्ति होती है । भक्त मुक्ति नहीं चाहता ।
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"यदि काशी में किसी का देहान्त हो तो मुक्ति होती है; फिर उसे आना नहीं पड़ता । ज्ञानियों का लक्ष्य मुक्ति है ।"
नरेन्द्र - उस दिन हम लोग महिम चक्रवर्ती के यहाँ गये थे ।
श्रीरामकृष्ण - (हँसकर) – फिर ?
नरेन्द्र - उसकी तरह का शुष्क ज्ञानी मैंने नहीं देखा ।
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श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - क्या हुआ ?
नरेन्द्र - हम लोगों से गाने के लिए कहा । गंगाधर ने गाया - कृष्णगीत । गाना सुनकर उसने कहा, ‘इस तरह का गाना क्यों गाते हो ? प्रेम-प्रेम अच्छा नहीं लगता । इसके अलावा बीबी-बच्चों को लेकर यहाँ रहता हूँ, यहाँ इस तरह के गाने क्यों ?’
श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - देखा, उसे कितना भय है !
(क्रमशः)

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