मंगलवार, 2 जुलाई 2024

*४३. गूढ़ अर्थ कौ अंग ११७/१२०*

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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४३. गूढ़ अर्थ कौ अंग ११७/१२०*
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तन करि ताल पताल ए, मनमथ१ जीतै मार ।
कहि जगजीवन जैति२ जगि, सैंन समझि संसार ॥११७॥
(१. मनमथ=मन्मथ=कामदेव) (२. जैति=विजय कर)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि यह देह गहन ताल हो लय हो और कामादि विषय जीते जा सकें । और जीत कर संसार में प्रभु के इशारे को समझे ।
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आठ बरग३ अगिनत४ बरग, बरग बरग महिं भेद ।
कहि जगजीवन बरग पांन हरि, बरग बरग जगि बेद ॥११८॥
(३. वरग=वर्ग=अक्षरों का समूह)
(४. अगिनत=अगणित=गणनारहित)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि अक्षरों के समूह जो कि क, च, ट, त, प, य, श, क्ष, आठ है से कितने ही भांति भांति के वर्ण समूह बनते हैं । उन वर्ग समूह का अभ्यास, अध्यास ही भांति भांति के वेदों को बनाता है ।
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बेद बरण५ उभै उभै बरण, त्रिभुवन बरण प्रकास ।
बरण नांम अबरण अलख, सुकहि जगजीवनदास ॥११९॥
(५. वरण=वर्ण=अक्षर)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि वेद के अक्षर, सभी का सार दो अक्षर र, व म है । जिनसे बने राम शब्द से त्रिभुवन में ज्ञान प्रकाश होता है । वह राम शब्दों से परे ब्रह्म रुप है ऐसा संत कहते हैं ।
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रांम भगति सब बरण मंहि, रांम भगति निज सार ।
कहि जगजीवन रांम भगति करि, सब जन उतरे पार ॥१२०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राम भक्ति सब अक्षरों में है वह ही सार रुप है । राम भक्ति कर ही सब पार उतरते हैं ऐसा संत कहते हैं ।
(क्रमशः)

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