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*सबै कसौटी शिर सहै, सेवक सांई काज ।*
*दादू जीवन क्यों तजै, भाजे हरि को लाज ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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जिन लोगों ने सत्य की खोज की है, उन्होंने कहा, जब तक तुम्हारा सिर न गिर जाये, तब तक तुम सत्य को न पा सकोगे। तुम्हारा सिर ही बाधा है। जब तक तुम सिर-सहित हो, तब तक तुम उसे न पा सकोगे। क्योंकि तुम्हारा सिर तर्क खड़े करता है। और तुम्हारे तर्क बेहूदे हैं। मगर तुम्हारा सिर कहता है कि सब ठीक हैं ये तर्क।
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संन्यासी बिना सिर के जीना शुरू करता है। उसका अस्तित्व तर्कहीन है। उसका होना हार्दिक है, बौद्धिक नहीं। उसके होने में बुद्धि प्रधान नहीं है। उसके होने में बुद्धि भी एक अंग है। जैसे मांस-मज्जा है, पित्ती है, हृदय है, फेफड़े हैं, वैसे बुद्धि भी एक अंग है।
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बुद्धि से कोई सत्य खोजा नहीं जाता। बुद्धि तो राडार है। उससे थोड़ी-सी झलक आसपास की मिलती है, ताकि तुम सम्हलकर चल सको। बुद्धि मालिक नहीं है, सेवक है। लेकिन कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि मालिक सेवक बन जाता है; सेवक, मालिक बन जाते हैं। तुम्हारे भीतर यही हुआ है। बुद्धि मालिक हो गई है, तुम सेवक हो गये हो। तुम पहले बुद्धि से पूछते हो, क्या सही, क्या गलत। फिर तुम चलते हो।
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बुद्धिमान आदमी बुद्धि से नहीं पूछता; बुद्धि का उपयोग करता है। बुद्धिमान आदमी बुद्धि का उपयोग करता है, एक साधन की तरह। जहां जरूरत होती है, उसको आवाज देता है। जहां जरूरत नहीं होती, उसे छोड़ देता है। लेकिन जरूरत, गैर-जरूरत तुम्हारा सवाल नहीं। बुद्धि चलती ही जाती है।
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तुम जाग रहे हो, सो रहे हो, बैठे हो, कोई फर्क नहीं पड़ता। बुद्धि चलती जाती है। और बुद्धि कहे जाती है यह करो, यह करो, वह करो; और तुमसे करवाये चली जाती है। ध्यान का अर्थ है, बुद्धि के इस नियंत्रण से छुटकारा। बुद्धि की इस मालकियत से मुक्ति। ध्यान का अर्थ है, बुद्धि की गुलामी से स्वतंत्रता। ध्यान एक बगावत है, एक क्रांति है।
ओशो...”बिन बाती बिन तेल -7”
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