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*दादू जिन कंकर पत्थर सेविया,*
*सो अपना मूल गँवाइ ।*
*अलख देव अंतर बसै, क्या दूजी जगह जाइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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परमात्मा इस जगत में सबसे बड़ी क्रांति है। परमात्मा परंपरा नहीं है क्योंकि परमात्मा पुराना नहीं है। परमात्मा प्रतिपल नया है। शास्त्र पुराने पड़ जाते हैं, उन पर धूल जम जाती है। परमात्मा पर कभी धूल नहीं जमती; वह शाश्वत जीवन है।
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आज की सुबह कल की सुबह की पुनरुक्ति नहीं थी। और आज के पक्षियों ने जो गीत गाए हैं वे पहले कभी नहीं गाए थे। और आज सांझ आकाश में जो बदलियां तैरेंगी वैसी बदलियां पहले कभी नहीं तैरी थीं। यहां अस्तित्व में सभी कुछ प्रतिपल नया होता रहता है। यहां सब नूतन है।
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जब तुम आंख खोल कर सत्य को देखोगे, उस नूतन का तुम पर आघात पड़ेगा। और तुम्हारी हृदय-तंत्री पर जो संगीत उठेगा वैसा संगीत पहले कभी नहीं उठा था। महावीर की हृदय-तंत्री ने एक गीत गाया था। बुद्ध की हृदय-तंत्री ने दूसरा गीत गाया, कबीर ने तीसरा। जिसने भी जाना है उसका अपना गीत है। उसका विशिशट गीत है। उसका अद्वितीय गीत है, बेजोड़ गीत है।
परंपरा उन्हीं-उन्हीं गीतों को बार-बार दोहराती है। परंपरा ऐसी है जैसे तस्वीर।
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एक महिला ने पिकासो से कहा, वह दीवानी थी पिकासो की। उसने पिकासो से कहा कि कल तुम्हारी एक तस्वीर देखी किसी के घर में। इतनी प्यारी थी कि मुझसे रहा न गया। मैंने तुम्हारी तस्वीर चूम ली। पिकासो ने कहाः चूम ली–तस्वीर मेरी ? फिर क्या हुआ ? तस्वीर ने चुंबन का उत्तर दिया या नहीं ? उस महिला ने कहाः क्या बात करते हो ! तस्वीर कैसे चुंबन का उत्तर देगी ?
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तो पिकासो ने कहाः फिर वह मैं नहीं था। तस्वीर ही रही होगी, कागज ही रहा होगा, कागज पर रंग रहे होंगे, मैं नहीं था।
शास्त्र तस्वीर है। तुम शास्त्र को चूम सकते हो, शास्त्र चुंबन का उत्तर नहीं देता।
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जब कबीर या बुद्ध या महावीर या धनी धरमदास जैसे आदमी से तुम्हारा मिलना हो जाए तो तस्वीर से मिलना नहीं होता, तुम जीवंत सत्य से मिल रहे हो। तुम चूमोगे, चूमने का उत्तर भी पाओगे। गुरु वह है जो उत्तर दे।
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शास्त्र वह है, जिसमें तुम चाहो तो उत्तर खोज लो, मगर वह है उत्तर तुम्हारा ही। शास्त्र ने कुछ दिया नहीं। जब तुम गीता पढ़ते हो तो तुम सोचते हो, तुम कृष्ण को समझ रहे हो। तुम कृष्ण को क्या समझोगे ! तुम कृष्ण को कैसे समझोगे ? कृष्ण सामने थे तब अर्जुन को इतनी कठिनाई हुई समझने में। तुम कैसे समझोगे ? कृष्ण उत्तर देने को मौजूद थे जीवंत, तब भी अर्जुन के मन में हजार-हजार शंकाएं उठती रहीं।
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तुम्हारे मन में भी उठेंगी। तुम उन शंकाओं का हल भी कर लोगे। लेकिन वह तुम्हीं प्रश्न बना रहे हो, तुम्हीं उत्तर दे रहे हो। कृष्ण तो चुप हैं। वह तो पिकासो की तस्वीर हैं, वहां से कोई उत्तर नहीं आ रहा है। इन दो शब्दों को याद रखनाः शास्त्र और शास्ता। शास्ता यानी गुरु।
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जिससे शास्त्र पैदा होते हैं उसे खोजो। जो शास्त्र पैदा हो चुके हैं उनमें अब तुम तलाश करते रहोगे तो तुम नाहक कूड़ा-करकट खोजते रहोगे। और जो अर्थ तुम उनसे पाओगे वह तुम्हारा दिया हुआ अर्थ है। वह तुम्हारा ही दिया हुआ रंग है। दूसरी तरफ से कोई उत्तर नहीं आया है, वहां कोई है नहीं।
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अब धम्मपद में बुद्ध कहां ? किताबों में कैसे जीवंतता हो सकती है ? असली गुरु की तलाश शास्त्रों से अन्य शास्ता की तलाश है। ऐसे किसी मूल स्रोत की, जिससे अभी शास्त्र पैदा हो रहा है। पैदा हो जाने के बाद परंपरा बन जाती है। जब शास्त्र पैदा हो रहा है उस घड़ी में पकड़ लेना किसी को। जब कहीं वेद जन्म रहा हो उस घड़ी में पकड़ लेना पैर, तो तुम धन्यभागी हो। तो तुम धन्यता से भर जाओगे।
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लेकिन दुर्भाग्य ऐसा है कि जब शास्त्र जन्म जाता है तब लोग पकड़ते हैं। क्योंकि लोग प्रतिष्ठा की फिकर करते हैं। प्रतिष्ठा में तो समय लगता है। बुद्ध जब जिंदा थे तब तो प्रतिष्ठा नहीं है। प्रतिष्ठा बनने में तो कुछ वर्ष बीतें, बुद्ध मरें, कहानियां गढ़ी जाएं, उनके आस-पास शास्त्र रचा जाए, पुराण बनें, सैकड़ों वर्ष बीतें, तब प्रतिष्ठा मिलती है।
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लोग प्रतिष्ठा से प्रभावित होते हैं। अब कबीर जिंदा जब हैं तब तो प्रतिष्ठा नहीं हो सकती। प्रतिष्ठा बनने में समय लगता है। जिंदगी पर लकीर खींचने में समय लगता है। इसलिए बड़ी सजग आंख चाहिए तो ही कोई गुरु को खोज सकता है। बड़ी गहरी प्यास चाहिए तो ही कोई गुरु को खोज सकता है।
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जिसने गुरु को खोज लिया उसकी आधी यात्रा पूरी हो गई। वह आधा परमात्मा में आ ही गया। उसका साथ मिल गया, जो परमात्मा से जुड़ा है तो तुम्हारा एक हाथ परमात्मा के हाथ में पहुंच ही गया। गुरु के जिसने पैर पकड़े, अनजाने उसने परमात्मा के पैर पकड़ लिए। शास्ता को खोजना, शास्त्र को नहीं।
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और ध्यान रखना, सभी शास्ता अंततः शास्त्र बन जाते हैं। और यह भी खयाल रखना कि सभी शास्त्र प्रथम में शास्ता थे। मगर तुम कब पकड़ोगे ? तुम तब पकड़ना जब शास्त्र जन्म रहा हो, जब सुबह हो रही हो, जब घटना घट रही हो, जब परमात्मा उतर रहा हो तभी पकड़ लेना। उतर चुका, फिर तस्वीरें रह जाती हैं, फिर मूर्तियां रह जाती हैं, फिर सिद्धांत रह जाते हैं। फिर तुम लाख सिर पटको उन मूर्तियों के सामने, कुछ भी न होगा। वहां से चुंबन का उत्तर नहीं आता।
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तुम्हारा प्रश्न आकाश में गूंजता है, कोई उत्तर देनेवाला नहीं। गुरु का अर्थ हैः तुम प्रश्न उठाओ और उत्तर आ सके–जीवंत; तुम्हारे लिए आ सके; तुम्हारे प्रश्न की संवेदना में आए; तुम्हारे प्रश्न के लिए आए; ठीक तुम्हें ध्यान में रख कर आए।
ओशो
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