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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*कलियुग घोर अंधार है, तिसका वार न पार ।*
*दादू तुम बिन क्यों तिरै, समर्थ सिरजनहार ॥*
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*विनती ॥*
हा हा हरी सँवाहिलै, भौसागर माँहीं ।
पारि पहूँचै आपतैं, बल येता नांहीं ॥टेक॥
जे चित आगा कौं चलै, तौ याँ पीछौ डारै ।
लहरि सँबाही ना पड़ै, मन मूंधा मारै ॥
येक लहरि जो टालिये, तौ दूजी आवै ।
डाभक डूभक ह्वै रहै, प्राणी थाघ न पावै ॥
अगम हमारा गमि नहीं, क्यूँहि कृपा कीजै ।
नाव तुम्हारे नाँउ की, मोहि लागण दीजै ॥
यहु भौ जल तूँ बोहिथा, हौं करौं पुकारा ।
बषनां बहता काढिजै, यहु बिड़द तुम्हारा ॥४॥
डाभक डूभक = अनिश्चयात्मक स्थिति, कभी डूबता है कभी ऊपर आता है । थाप = सीमा । बोहिथा = नाव, जहाज । बिड़द = सुयश, स्वभाव, प्रकृति इस पद में विनय के भाव हैं । साधक का जब विरहोन्माद चरमावस्था में पहुँच जाता है तब वह इस स्थिति में कभी दर्शन देने के लिये अनुनय विनय करता है तो कभी इतिहास की साक्षी सहित मीठे-मीठे उलाहने देकर दर्शन देने की प्रार्थना करता है । कभी नाराजगी व्यक्त करता है तो कभी पैरों में पड़ता है किन्तु प्रियतम के प्रति प्रेम घटता नहीं, उत्तरोत्तर बढ़ता ही जाता है ।
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बषनांजी के प्रथम तीन पद विरह से संबद्ध हैं, यह चौथा विनय से सम्बन्धित है । हे हरि ! हे हरि ! ! भवसागर में डूबते मुझ संसारी को डूबने से बचा लो । हे हरि ! आप निश्चय मानें कि मैं स्वयं ही इस दुस्तर भवसागर को पार कर जाऊंगा, इतनी सामर्थ्य मेरे में नहीं है ।
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मेरा चित यदि आपकी ओर उन्मुख होता है तो मन उसे पुनः संसार की खींच लाता है । इस मन की लहरें = इतनी अधिक वृत्तियाँ हैं कि इन्हें संभालना मेरे लिये शक्य नहीं है ।
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यह मन तो संसार ही संसार की ओर दौड़ता है । यदि मैं एक वृत्ति को रोकता हूँ तो तो तत्काल दूसरी अपना तांडव करना प्रारम्भ कर देती है । प्राणी अनिश्चय की स्थिति में हो जाता है कि वास्तव में सच्चा सुख किसमें और झूठा किस में है । क्योंकि मन की गति निस्सीम है ।
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इसकी सीमा पाना मुश्किल है । मेरा मन अगम्य बन गया है । इसकी गम पाना मुश्किल हो रहा है । अतः आप कैसे भी करके मुझ पर कृपा करिये जिससे मेरा मन आपके नाम में लग जाये । मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ ।
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इस भवजल से पार होने के लिये आप ही एक मात्र जहाज हैं । आपका स्वभाव है, जो आपके शरणापन्न हो जाता है, उसका योगक्षेम आप वहन करते हैं; अतः मुझ बहते हुए को आपही निकालकर पार करिये, क्योंकि बहतों का पार करना आपका बिड़द = स्वभाव है ॥४॥
(क्रमशः)

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