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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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*भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।*
*साभार : महामण्डलेश्वर स्वामी अर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।*
*#हस्तलिखित०दादूवाणी सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #४४०)*
*राग धनाश्री ॥२७॥**(गायन समय दिन ३ से ६)*
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*४४० आरती (त्रिताल)*
*इहि विधि आरती राम की कीजे,*
*आत्मा अंतर वारणा लीजे ॥टेक॥*
*तन मन चन्दन प्रेम की माला,*
*अनहद घंटा दीन दयाला ।*
*ज्ञान का दीपक पवन की बाती,*
*देव निरंजन पाँचों पाती ।*
*आनन्द मंगल भाव की सेवा,*
*मनसा मन्दिर आतम देवा ।*
*भक्ति निरन्तर मैं बलिहारी,*
*दादू न जानै सेव तुम्हारी ।*
परमात्मा की आरती करते हुए परम महर्षि श्री स्वामी दादूजी महाराज आध्यात्मिकी आरती का विधान बतला रहे हैं ।
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इस विधि से परमात्मा की अपने हृदय में आरती करनी चाहिये कि शरीर और मन को नाना सुन्दर गुणों से चन्दन की तरह सुगन्धित करके भगवान् को अर्पण कर दो । प्रेममयी पुष्प-माला पहना दो । दीनदयालु परमात्मा के आगे अनाहतनाद ध्वनि की तरह “सोऽहं सोऽहं” की ध्वनि करते रहो ।
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ज्ञान का दीपक जलाओ । उसमें पञ्च प्राणों की वर्तिका बनाकर उनको जलाओ अर्थात् पञ्च-प्राणों को रोक कर ज्ञान संपादन करना ही वर्तिका जलाना है निरंजन निराकार ब्रह्म को तुलसी-पत्र के समर्पण की तरह पञ्च ज्ञानेन्द्रियों को तुलसी-पत्र मान कर समर्पण कर दो । इस प्रकार आनन्दस्वरूप मंगला आरती करो ।
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वहां पर भगवान् की सेवा भी भावमयी करनी चाहिये, बुद्धि ही मन्दिर है, क्योंकि भगवान् की प्राप्ति बुद्धि से ही होती है । हे प्रभो ! मैं आपकी सेवा पूजा करना नहीं जानता हूं, सो आप ही उसका प्रकार बतलाइये । मैं तो दिन-रात आपको ही बुद्धि-मन्दिर में बैठा हुआ आपकी ही भक्ति करता हुआ आपको सर्वस्व समर्पण आकर रहा हूं ।
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स्तोत्ररत्नावली में कहा है कि –
हे दयानिधे ! पशुपते ! हे देव ! यह रत्न निर्मित सिंहासन, शीतल जल से स्नान, नाना रत्नावलि विभूषित दिव्य वस्त्र, कस्तूरी की गन्ध से युक्त चन्दन, जूही चम्पा और विल्व-पत्र से रचित पुष्पांजलि तथा धूप और दीप यह सब मानसिक पूजोपहार को आप ग्रहण कीजिये ।
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वेदान्तसंदर्भ में निर्गुणपूजा के विषय में लिख रहे हैं कि –
इस अनेक वासना से युक्त प्रपञ्चकों में ही धारणा कर रहा हूं, ऐसा दूसरा कोई नहीं । जो आत्मा में अनुसंधान है, यह ही चन्दन अर्पण करना है । समस्त वासनाओं का त्याग ही धूप का अर्पण है और ज्योतिर्मय ब्रह्म का ज्ञान ही दीपक का प्रकाश करना है ।
(क्रमशः)

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