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*दादू कोई पीछे हेला जनि करै, आगे हेला आव ।
आगे एक अनूप है, नहिं पीछे का भाव ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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यह सच है कि जो घड़ा उलटा रखा हो, वह आकाश से बरसते मेघ के क्षण में भी खाली का खाली रह जाएगा। जो घड़ा सीधा रखा हो, वह भर जाएगा। तो ज्यादा से ज्यादा हमारे हाथ में इतना है कि हम अपने घड़े को सीधा रखें और जब प्रेम आए तब हम अंगीकार करें। हम अपने खिड़की, द्वार—दरवाजे खुले रखें, और जब प्रेम का झोंका आए तो हम उसे आनंद से स्वागत करें, मंगल—गीत गाएं। प्रेम के हवा के झोंके को हम ला नहीं सकते, बुला भी नहीं सकते, पुकार भी नहीं सकते, आता है तब आता है।
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प्रेम की यह महत्वपूर्ण घटना तुम समझ लेना। होता है तब होता है, आदमी के हाथ के बाहर है। और जो आदमी के हाथ के भीतर है, वही परमात्मा के हाथ नहीं। जो आदमी के हाथ के बाहर है, वही परमात्मा के हाथ में है। जो आदमी कर लेता है, वह तो दो कौड़ी का है। जो आदमी के हाथ के भीतर है, वह आदमी से छोटा है। प्रेम ऐसी घटना है जो तुम से बड़ी है। प्रेम तुम्हारे भीतर नहीं घट सकता; हां, तुम अपने को प्रेम में समाविष्ट कर ले सकते हो। तो खुले रहना !
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वाजिद कहते हैं: साधां सेती नेह लगे तो लाइए।
जब घटना घटने लगे तो रोकना मत, लग सके तो लग जाने देना। यह प्रेम बने तो बन जाने देना, बाधा मत डालना। और हजार बाधाएं डालता है मन, क्योंकि मन प्रेम के बड़े विपरीत है। मन क्यों प्रेम के विपरीत है ? मन इसलिए प्रेम के विपरीत है कि प्रेम में मन को मरना होता है। प्रेम तो मन की मृत्यु पर ही खड़ा होता है।
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मन को तो मरना होता है, अहंकार को मरना होता है, मैं—भाव को मरना होता है। प्रेम की बुनियाद ही अहंकार की मृत्यु पर रखी जाती है। अहंकार की जली हुई राख पर ही प्रेम का मंदिर उठता है। इसलिए अहंकार डरता है, मन भयभीत होता है। मन हजार उपाय करता है बच निकलने के, भाग जाने के। इस बात को ख्याल में रखकर वाजिद कह रहे हैं: हो सके तो हो जाने देना, रोकना मत।
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साधां सेती नेह लगे तो लाइए।
अगर साहस बन सके, तो हो जाने देना यह अपूर्व घटना। जब प्रेम बनता हो तो लाख मन कहे, लाख तर्क दे। और मन के पास बहुत तर्क हैं। मन के पास तर्क ही तर्क हैं, और तो कुछ है भी नहीं। और प्रेम तर्क नहीं है, प्रेम अतक्र्य है। जैसे समझो, जिनका मुझसे प्रेम बन गया है, उनसे कोई पूछे, उत्तर नहीं दे पाते हैं। उत्तर देने का कोई उपाय नहीं है। उन्हें कोई भी कह सकता है तुम पागल हो गए हो ! वे अपनी सुरक्षा भी न कर पाएंगे। वे विवाद भी न कर सकेंगे। उनके ओंठ सिए रह जाएंगे, उनसे शब्द भी न फूटेगा। और अगर उन्होंने चेष्टा करके कुछ कहा, तो उनको खुद ही दिखाई पड़ेगा कि यह वह नहीं है जो हम कहना चाहते थे, यह वही नहीं है जो हुआ है। शब्द बड़े छोटे हैं, प्रेम आकाश जैसा विराट। कैसे समाओ शब्दों में उसे ? और प्रेम अतक्र्य है, इसलिए कोई नहीं कह सकता कि क्यों हो गया है। प्रेम के लिए कोई “क्यों’ का उत्तर नहीं है।
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साधारण प्रेम के लिए भी “क्यों’ का उत्तर नहीं होता। तुम किसी स्त्री के प्रेम में पड़ गए, या किसी पुरुष के प्रेम में पड़ गए, या किसी से मैत्री बन गई। और तुमसे कोई पूछे——क्यों ? तलाशो, खोजो; कोई उत्तर सूझता नहीं। और जितने उत्तर तुम दोगे, सब झूठे हैं। जैसे तुम कहोगे कि यह स्त्री सुंदर है——इसलिए। मगर यह स्त्री सुंदर है ! और भी तो सैकड़ों लोग हैं, वे कोई इसके प्रेम में नहीं पड़े। और यह स्त्री सुंदर है ! एक दिन पहले, तुम्हारे प्रेम में पड़ने के एक दिन पहले, यह स्त्री तुम्हारे सामने से निकली होती, तो तुम प्रेम में नहीं पड़ गए होते। हो सकता है यह तुम्हारे मोहल्ले में ही रही हो। वर्षों तुमने इसे आते—जाते देखा हो। और कभी प्रेम की तरंग नहीं उठी थी; और एक दिन उठी और घटना घटी। शायद इसके पहले तुमने ध्यान भी न दिया हो कि यह कौन है। शायद इसका चेहरा भी ठीक से न देखा हो। अब कहते हो——क्योंकि यह सुंदर है इसलिए प्रेम हो गया! सुंदर यह कल भी थी और परसों भी थी, सुंदर यह सदा से थी। आज क्यों प्रेम हुआ ? इस क्षण में क्यों प्रेम हुआ ?
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तुम उलटी बात कर रहे हो। यह स्त्री सुंदर मालूम होने लगी, क्योंकि प्रेम हो गया है। तुम कह रहे हो कि सुंदर होने के कारण प्रेम हो गया है। प्रेम हो जाने के कारण अब यह सुंदर मालूम होती है। जिससे प्रेम हो जाता है, वही सुंदर मालूम होता है। इसलिए लोग कहते हैं, किसी मां को अपना बेटा कुरूप नहीं मालूम होता, किसी बेटे को अपनी मां कुरूप नहीं मालूम होती। जहां प्रेम हो जाता है, वहीं सौंदर्य दिखाई पड़ने लगता है। प्रेम की आंख ही सौंदर्य की जन्मदात्री है।
ओशो
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