मंगलवार, 9 जुलाई 2024

*सांप लटक्कि रह्यो लखि लाव सु*


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*माया मंदिर मीच का, तामैं पैठा धाइ ।*
*अंध भया सूझै नहीं, साध कहैं समझाइ ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*सांप लटक्कि रह्यो लखि लाव सु,*
*मूठिनि से छत जाय चढ्यो जू ।*
*ऊपर के पट लागि रहे फिर,*
*कूद पस्यो ग्रत मांहिं गड्यो जू ॥*
*जाग उठी करि दीपक देखत,*
*है विलमंगल नांहि पढ्‌यो जू ।*
*नीर नहावत चीर उढावत,*
*हा किमि आवत तोय बढ्‌यो जू ॥४०९॥*
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ये चिन्ता में ही थे, इतने में ही इनकी दृष्टि छत की मोरी से लटकते हुये एक विशाल सर्प पर पड़ी, उसको आपने अपने लिये चिन्तामणि की लटकाई हुई लाव(बैलों द्वारा कूप से पानी निकालने का मोटा रस्सा) समझ कर हाथ की मुट्ठियों से पकड़ते हुये ऊँचे जाकर छत पर पहुँच गये ।
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किन्तु ऊपर से नीचे जाने के द्वार के किवाड़ भी बन्द थे । फिर तो ये अधिक देर चिन्तामणि से अलग नहीं रह सके । ऊपर से नीचे कूद पड़े । नीचे एक गर्त(गड्डा) था उसमें पड़ कर कीचड़ में गड़ गये ।
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शब्द सुन कर चिन्तामणि जाग उठी और दीपक जलाकर देखा तो ज्ञात हुआ ये तो विल्वमंगलजी हैं । तब चिन्तामणि ने प्रणय कोप से कहा- "तुम कुछ नहीं पढ़े, तुम्हारे नाम में मंगल शब्द व्यर्थ ही जोड़ दिया गया है, तुम तो अमंगल ही हो । ऐसा तुमने क्यों किया ?
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अच्छा अब शीघ्र अच्छे जल से स्नान करो ।" स्नान कराकर सूखे वस्त्र पहनाये, बैठाये और पूछा- आश्चर्य की बात है नदी का जल तो आज बहुत बढ़ा हुआ है, आप कैसे नदी पार हुये और कैसे छत पर चढ़े, बताइये तो सही ? ॥
(क्रमशः)

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