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*दादू जे जन बेधे प्रीति सौं, सो जन सदा सजीव ।*
*उलट समाने आप में, अंतर नांही पीव ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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*आत्माओं का विज्ञान *
आत्माओं का लोक कुछ हमसे भिन्न नहीं है। ठीक हमारे निकट और पड़ोस में है। ठीक हम एक ही जगत में अस्तित्ववान हैं। यहां इंच-इंच जगह भी आत्माओं से भरी हुई है। यहां जो हमें खाली जगह दिखाई पड़ती है वह भी भरी हुई है। अगर कोई भी शरीर किसी गहरी रिसेप्टिव हालत में हो, और दो तरह से शरीर--दूसरे लोगों के शरीर--ग्राहक अवस्था में होते हैं। या तो बहुत भयभीत अवस्था में।
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जितना भयभीत व्यक्ति हो, उसकी खुद की आत्मा उसके शरीर में भीतर सिकुड़ जाती है। सिकुड़ जाती है मतलब शरीर के बहुत हिस्सों को छोड़ देती है खाली। उन खाली जगहों में पास-पड़ोस की कोई भी आत्मा ऐसे बह सकती है जैसे गड्ढे में पानी बह जाता है। तब इसको जो अनुभव होते हैं वे ठीक वैसे ही हो जाते हैं जैसे शरीरधारी आत्मा को होते हैं। या बहुत गहरी प्रार्थना के क्षण में कोई आत्मा प्रवेश कर सकती है। बहुत गहरी प्रार्थना के क्षण में भी आत्मा सिकुड़ जाती है।
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लेकिन भय की अवस्था में केवल वे ही आत्माएं सरक कर भीतर प्रवेश कर सकती हैं जो दुख-स्वप्न देख रही हैं। जिन्हें हम बुरी आत्माएं कहें, वे प्रवेश कर सकती हैं। क्योंकि भयभीत व्यक्ति बहुत ही कुरूप और गंदी स्थिति में है। उसमें कोई श्रेष्ठ आत्मा प्रवेश नहीं कर सकती। और भयभीत व्यक्ति गड्ढे की भांति है, जिसमें नीचे उतरने वाली आत्माएं ही प्रवेश कर सकती हैं।
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प्रार्थना से भरा हुआ व्यक्ति शिखर की भांति है, जिसमें सिर्फ ऊपर चढ़ने वाली आत्माएं प्रवेश कर सकती हैं। और प्रार्थना से भरा हुआ व्यक्ति इतनी आंतरिक सुगंध से और सौंदर्य से भर जाता है कि उनका रस तो केवल बहुत श्रेष्ठ आत्माओं को हो सकता है। वे भी निकट में हैं। तो जिसको इनवोकेशन कहते हैं, आह्वान कहते हैं, प्रार्थना कहते हैं, उसमें भी प्रवेश होता है, लेकिन श्रेष्ठतम आत्माओं का। उस समय अनुभव ठीक वैसे ही हो जाते हैं जैसे कि शरीर में हुए, इन दोनों अवस्थाओं में।
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तो जिनको देवताओं का आह्वान कहा जाता रहा है, उसका पूरा विज्ञान है। वे देवता कहीं आकाश से नहीं आते हैं। जिन्हें भूतप्रेत कहा जाता रहा, वे भी किन्हीं नरकों से, किन्हीं प्रेत-लोकों से नहीं आते हैं। वे सब मौजूद हैं, यहीं! असल में एक ही स्थान पर मल्टी-डायमेंशनल एक्झिस्टेंस है। एक ही बिंदु पर बहुआयामी अस्तित्व है।
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अब जैसे यह कमरा है, यहां हम बैठे हैं। हवा भी है यहां। यहां कोई धूप जला दे तो सुगंध भी भर जाएगी यहां। यहां कोई गीत गाने लगे तो ध्वनि-तरंगें भी भर जाएंगी यहां। धूप का कोई भी कण ध्वनि-तरंग के किसी भी कण से नहीं टकराएगा। इस कमरे में संगीत भी भर सकता है, प्रकाश भी भरा है। लेकिन प्रकाश की कोई तरंग संगीत की किसी तरंग से टकराएगी नहीं। और न संगीत के भरने से प्रकाश की तरंगों को बाहर निकलना पड़ेगा कि जगह खाली करनी पड़े।
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असल में इसी स्थान को ध्वनि की तरंगें एक आयाम में भरती हैं, और प्रकाश की तरंगें दूसरे आयाम में भरती हैं, वायु की तरंगें तीसरे आयाम में भरती हैं। और इस तरह के हजार आयाम इसी कमरे को हजार तरह से भरते हैं। एक-दूसरे में कोई बाधा नहीं पड़ती। एक-दूसरे को एक-दूसरे के लिए कोई स्थान खाली नहीं करना पड़ता। इसलिए स्पेस जो है वह मल्टी-डायमेंशनल है।
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यहां हमने एक टेबल रखी है। अब दूसरी टेबल नहीं रख सकते इस जगह। क्योंकि एक टेबल और दूसरी टेबल एक ही आयाम में बैठती हैं। तो इस टेबल को रख दिया तो इस स्थान पर--इसी टेबल के स्थान पर--दूसरी टेबल नहीं रख सकते। वह इसी आयाम की है। लेकिन दूसरे आयाम का अस्तित्व इस टेबल से कोई बाधा नहीं पाएगा। ये सारी आत्माएं ठीक हमारे निकट हैं। और कभी भी इनका प्रवेश हो सकता है। जब इनके प्रवेश होंगे तब जो इनके अनुभव होंगे वे ठीक वैसे ही हो जाएंगे जैसे शरीर में प्रवेश पर होते हैं।
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दूसरी बात, जब ये व्यक्तियों में प्रवेश कर जाएं तब ये वाणी का उपयोग कर सकते हैं। तब संवाद संभव है। इसलिए आज तक पृथ्वी पर कोई प्रेत या कोई देव प्रत्यक्ष और सीधा कुछ भी संवादित नहीं कर पाया है। लेकिन ऐसा नहीं है कि संवाद नहीं हुए हैं। संवाद हुए हैं। और देवलोक या प्रेतलोक के संबंध में, स्वर्ग और नरक के संबंध में जो भी हमारे पास सूचनाएं हैं वे काल्पनिक लोगों के द्वारा नहीं हैं, वे इन लोकों में रहने वाले लोगों के ही द्वारा हैं। लेकिन किसी के माध्यम से हैं।
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इसलिए बहुत पुराने दिनों से जो व्यवस्था थी वह यह थी--जैसे कि वेद हैं--तो वेद का कोई ऋषि नहीं कहेगा कि हम इनके लेखक हैं। वे हैं भी नहीं। इसमें कोई विनम्रता कारण नहीं है कि वे विनम्रतावश कहते हैं कि हम लेखक नहीं हैं। इसमें तथ्य है। ये जो-जो कही गई हैं बातें, ये उन्होंने कही नहीं हैं, किसी और आत्मा ने उनके द्वारा कहलवाई हैं। और यह अनुभव इतना साफ होता है, जब कोई और आत्मा तुम्हारे भीतर प्रवेश करके बोलेगी तब यह अनुभव इतना साफ है, क्योंकि तुम पूरी तरह जानते हो कि तुम अलग बैठे हो, और तुम बोल ही नहीं रहे हो, और कोई और ही बोल रहा है। तुम भी सुनने वाले हो, बोलने वाले नहीं हो।
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बाहर से तो पता चलाना मुश्किल होगा, लेकिन बाहर से भी जो लोग ठीक से कोशिश करें तो बाहर से भी पता चलेगा। क्योंकि आवाज का ढंग बदल जाएगा, टोन बदल जाएगी, शैली बदल जाएगी, भाषा भी बदल जा सकती है। और उस व्यक्ति को तो भीतर बहुत ही साफ मालूम पड़ेगा। अगर प्रेत आत्मा प्रवेश की है तो शायद वह इतना भयभीत हो जाए कि मूर्च्छित हो जाए। लेकिन अगर देव आत्मा प्रवेश की है तो वह इतना जागरूक होगा जितना कि कभी भी नहीं था; और तब स्थिति बहुत साफ उसे दिखाई पड़ेगी।
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तो जिनमें प्रेतात्माएं प्रवेश करेंगी वे तो प्रेतात्माओं के जाने के बाद ही कह सकेंगे कि कोई हममें प्रवेश कर गया। वे इतने भयभीत हो जाएंगे कि मूर्च्छित हो जाएंगे। लेकिन जिनमें दिव्य आत्मा प्रवेश करेगी, वे उसी क्षण भी कह सकेंगे कि यह कोई और बोल रहा है, यह मैं नहीं बोल रहा। ये दो आवाजें एक ही उपकरण उपयोग करेगा, जैसे एक ही माइक्रोफोन का दो आदमी एक साथ उपयोग कर रहे हों। एक चुप खड़ा रह जाए और दूसरा बोलना शुरू कर दे।
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तो शरीर की इंद्रियों का ऐसा उपयोग हो तब संवाद हो पाता है। इसलिए देवताओं के, प्रेतों के संबंध में जो भी उपलब्ध है जगत में, वह संवादित है, वह कहा गया है। और तो जानने का कोई उपाय नहीं है, जानने का वही उपाय है। और इन सबके पूरे के पूरे विज्ञान निर्मित हो गए थे। और जब विज्ञान पूरा होता है तो बड़ी आसानी हो जाती है। तब हम चीजों को समझ-बूझ पूर्वक उपयोग कर सकते हैं। जब विज्ञान नहीं होता तो समझ-बूझ पूर्वक उपयोग नहीं करते, कभी घटनाएं घटती हैं। तो इनका ठीक विज्ञान तय हो गया था।
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जैसे एक व्यक्ति प्रवेश कर गया, कोई दिव्य आत्मा किसी में प्रवेश कर गई आकस्मिक रूप से, तो धीरे-धीरे इसका विज्ञान निर्मित कर लिया गया कि किन परिस्थितियों में वह दिव्य आत्मा प्रवेश करती है। वे परिस्थितियां अगर पैदा की जा सकें तो वह फिर प्रवेश कर सकेगी। अब जैसे कि मुसलमान लोबान जलाएंगे। वह किन्हीं विशेष दिव्य आत्माओं के प्रवेश करने के लिए सुगंध के द्वारा वातावरण निर्मित करना है।
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या हिंदू धूप जलाएंगे, या घी के दीये जलाएंगे। ये आज सिर्फ औपचारिक हैं, लेकिन कभी उनके कारण थे। एक विशेष मंत्र बोलेंगे। विशेष मंत्र इनवोकेशन बन जाता है। इसलिए जरूरी नहीं है कि मंत्र में कोई अर्थ हो, अक्सर नहीं होगा। क्योंकि अर्थ वाले मंत्र विकृत हो जाते हैं। अर्थहीन मंत्र विकृत नहीं होते। अर्थ में आप कुछ और भी प्रवेश कर सकते हैं। समय के अनुसार उसका अर्थ बदल सकता है। लेकिन अर्थहीन मंत्र में आप कुछ भी प्रवेश नहीं कर सकते हैं, समय के अनुसार कोई अर्थ नहीं बदलता।
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इसलिए जितने गहरे मंत्र हैं वे अर्थहीन हैं, मीनिंगलेस हैं। उसमें कोई अर्थ नहीं है जिसमें कि युग के अनुसार कोई फर्क पड़ेगा। सिर्फ ध्वनियां हैं। और ध्वनि-उच्चारण की एक विशेष व्यवस्था है, उसी ढंग से उसका उच्चारण होना चाहिए। उतनी ही चोट, उतनी ही तीव्रता, उतना उतार, उतना चढ़ाव, उतनी चोट होने पर वह आत्मा तत्काल प्रवेश हो सकेगी। या वह आत्मा खो गई होगी तो उस जैसी कोई आत्मा प्रवेश हो सकेगी।
ओशो ~ मैं कहता आंखन देखी
प्रवचन - ०४, धर्म की गति और तेज हो !
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