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*पुरुष पुरातन छाड़ कर, चली आन के साथ ।*
*सो भी संग तैं बीछुट्या, खड़ी मरोड़ै हाथ ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*धार परूं नहीं देह रहै पर,*
*मित्र मिले यह बात भली है ।*
*डाकि पर्यो कछु नांहि डर्यो मन,*
*वाहि कर्यो कित आत चली है ॥*
*पारन पावत डूबत जावत,*
*आत मड़ा चढि नाव डली है ।*
*जाय लग्यो तट पाँय चल्यो झट,*
*पाट जड़े लखि आँख खुली है ॥४०८॥*
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अब तो नदी की धार में पड़ जाऊँ यही अच्छा है । क्योंकि चिन्तामणि की विरह धार में पड़कर तो यह देह रहेगी ही नहीं, परन्तु नदी की धार से तो संभव है निकलकर मित्र से मिल सकूं । अतः नदी की धार में पड़ना ही अच्छी बात है ।
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यह सोच कर ये नदी की धार में कूद पड़े । फिर भी मन में कुछ भय नहीं किया । किन्तु चिन्तामणि की ओर ही चित्त लगाया और सोचने लगे, वह कहीं से चली आ रही है । वे उस तीव्र धार में कभी डूबते और कभी तैरते बहे जा रहे थे, किन्तु नदी के पार नहीं जा सकते थे ।
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इतने में ही इनके सामने एक मुर्दा आ गया । तब इनने मन में सोचा चिन्तामणि ने ही यह नाव मेरे लिये नदी में डाल कर मेरे पास भेजी है । उसे नाव समझकर उस पर चढ़ गये और दैवयोग से किनारे पहुँच गये ।
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मुर्दे को तट पर छोड़कर शीघ्रता से पैरों से चलकर चिन्तामणि के घर के द्वार पर पहुँचे तब रात्रि आधी से भी अधिक व्यतीत हो चुकी थी । घर के कपाट बन्द थे । यह देख कर इनकी आँखें खुली अर्थात् चिन्ता हुई कि अब क्या करें ! ॥
(क्रमशः)

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