शनिवार, 6 जुलाई 2024

*४३. गूढ़ अर्थ कौ अंग १२१/१२४*

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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४३. गूढ़ अर्थ कौ अंग १२१/१२४*
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सबन मदुर अयालये, गिरफदार हरि दांम ।
कहि जगजीवन राज दिल, अलह आसिक मांम ॥१२१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सभीजन बिना हिले डुले हरि नाम में गिरफ्तार रहें तो आशिकों के राजदिल परमात्मा उस जीव के ही आशिक होंगे हिलना डुलना से अभिप्राय व्यर्थ की चेष्टाएँ ।
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अलह हर बांहण जड़ी बली, रह नर भोग विलास ।
अबिगत सकति अपार गति, सुकहि जगजीवनदास ॥१२२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि अल्लाह ने जाने क्या आदत कर दी कि जीव भोग विलास में ही रत रहता है । उन परमात्मा की गति को कोइ नहीं जान सकता है ।
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भुवन कांगरू देश६ हरि, जुड़ी मनोरथ मांर ।
कहि जगजीवन रांम सुख, लहै सो उतरै पार ॥१२३॥
(६. कांगरू देश=कामरूप देश)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि इन्द्र के स्वर्ग से जहां सभी कामनाएं पूर्ण हो में भी यदि जीव मन विषयों से मार कर प्रभु की और लगा दे तब ही वह पार उतर सकेगा ।
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या माया खिसियावै७, खाया करै उखाल८ ।
कहि जगजीवन जन जरै, हरि भजि बंचै काल ॥१२४॥
(७. खिसियावै=लज्जित होती है) (८. उखाल=अल्पाहार)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जहाँ माया की कोइ हस्ती नहीं हो जहाँ जीव की आवश्यकता ही अल्पाहार हो । वहां ही जीव स्मरण करके काल से बच सकते हैं ।
(क्रमशः)

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