रविवार, 7 जुलाई 2024

*श्रीरामकृष्ण तथा गुरु-कृपा*

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*हो ऐसा ज्ञान ध्यान, गुरु बिना क्यों पावै ।*
*वार पार, पार वार, दुस्तर तिर आवै हो ॥*
*ज्योति जुगति बाट घाट, लै समाधि ध्यावै ।*
*परम नूर परम तेज, दादू दिखलावै हो ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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श्रीरामकृष्ण चुप हैं । नरेन्द्र तथा अन्य भक्त उन्हें एकदृष्टि से देख रहे हैं । एकाएक जरा मुस्कराकर वे फिर नरेन्द्र से बातचीत करने लगे । मणि पंखा झल रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण – (नरेन्द्र से) – अच्छा, यहाँ तो सब कुछ है न ? मसूर और चने की दाल, और इमली तक ।
नरेन्द्र - उन सब अवस्थाओं का भोग करके आप कुछ नीचे की अवस्था में रहते हैं ।
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मणि - (स्वगत) - उन सब उच्च अवस्थाओं का भोग करके भक्त की अवस्था में हैं ।
श्रीरामकृष्ण - किसी ने मानो नीचे खींच रखा है ।
यह कहकर श्रीरामकृष्ण ने मणि के हाथ से पंखा खींच लिया और कहने लगे –
"जैसे सामने यह पंखा देख रहा हूँ, प्रत्यक्ष रूप से, ठीक इसी तरह मैंने ईश्वर को प्रत्यक्ष देखा है । और देखा है -"
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यह कहकर श्रीरामकृष्ण ने अपने हृदय पर हाथ रखा, और इशारे से नरेन्द्र से पूछा – “बताओ, भला मैंने क्या कहा ?”
नरेन्द्र - मैं समझ गया ।
श्रीरामकृष्ण - कहो तो सही ?
नरेन्द्र - अच्छी तरह मैंने नहीं सुना ।
श्रीरामकृष्ण फिर इंगित कर रहे हैं - "मैंने देखा, वे(ईश्वर) और हृदय में जो हैं, दोनों एक ही व्यक्ति हैं ।"
नरेन्द्र - हाँ, हाँ, सोऽहम् ।
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श्रीरामकृष्ण - केवल एक रेखा मात्र है ('भक्त का मैं' है) - सम्भोग के लिए ।
नरेन्द्र - (मास्टर से ) - महापुरुष स्वयं पार होकर जीवों को पार करने के लिए रहते हैं, इसीलिए वे अहंकार और शरीर के सुख-दुःखों को लेकर रहते हैं ।
"जैसे कुलीगिरी – मजदूरी । हम लोग कुलीगिरी बाध्य होकर करते हैं, परन्तु महापुरुष तो कुलीगिरी अपने शौक से करते हैं ।"
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*श्रीरामकृष्ण तथा गुरु-कृपा*
श्रीरामकृष्ण – (नरेन्द्रादि भक्तों से) - छत दीख तो पड़ती है, परन्तु छत पर चढ़ना जरा कठिन काम है !
नरेन्द्र - जी हाँ ।
श्रीरामकृष्ण - परन्तु अगर कोई चढ़ा हो तो रस्सी डालकर वह दूसरे को भी चढ़ा ले सकता है ।
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"हृषीकेश का एक साधु आया था । उसने मुझसे कहा - यह बड़े आश्चर्य की बात है, तुममें पाँच तरह की समाधि मैंने देखी ।
"कभी तो कपिवत्, - देहरूपी वृक्ष पर बन्दर की तरह महावायु मानो इस डाल से उस डाल पर उछल-उछलकर चढ़ती है । और तब समाधि होती है ।
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"कभी मीनवत् - अर्थात् जिस प्रकार मछली पानी के भीतर फुर्ती से निकल जाती है और आनन्द से विहार करती रहती है, उसी तरह वायु भी देह के भीतर चलती रहती है और समाधि होती है ।
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"कभी पक्षीवत्, - देह-वृक्ष के भीतर महावायु पक्षी की तरह कभी इस डाल पर और कभी उस डाल पर फुदकते हुए चढ़ती है ।
“कभी पिपीलिकावत्, – चींटी की तरह धीरे-धीरे महावायु ऊपर चढ़ती रहती है । सहस्रार में चढ़ने पर समाधि होती है ।
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"और कभी तिर्यग्वत्, - अर्थात् महावायु की गति सर्प की तरह वक्र होती है, फिर सहस्रार में पहुँचकर समाधि होती है ।"
राखाल - (भक्तों से) – अब बातचीत रहने दीजिये । बहुत देर हो गयी । उनकी बीमारी बढ़ जायगी ।
(क्रमशः)

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