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*दादू बूड रह्या रे बापुरे, माया गृह के कूप ।*
*मोह्या कनक अरु कामिनी, नाना विधि के रूप ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*नाव पठावत लाव झुलावत,*
*सो मन में हम जान लिई है ।*
*चालि दिखाय भई कछु स्यान१ हि,*
*देख भवंगम आहि२ दिई है ।*
*ज्यूं मन मांस रु चाँम लग्यो मम,*
*यूं हरि लाय सयानप ई है ।*
*प्रात भये हम तो भजि हैं प्रभु,*
*तो मन की अब तू जनई है ॥४१०॥*
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आपने कहा- तुमने मेरे लिये नौका भेजी थी और छत से लाव लटकाई थी । तब ही हमने तुम्हारी प्रीति को पहचान लिया था अर्थात् तुमने ही तो प्रीतिपूर्वक नौका भेजी थी और छत से लाव लटकाई थी । उन्हीं के द्वारा तो मैं आया हूँ ।
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चिन्तामणि कुछ विचार१ करके बोली- "आप क्या कह रहे हैं ? चलिये, दिखाइये मैने कहाँ नाव लटकाई है ?" जाकर देखा तो विशाल सर्प लटक रहा है । तब चिन्तामणि ने आह२ देकर अर्थात् क्रोध करके कहा-
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"ऐसी ही नौका होगी । आपने जैसे मेरे मांस चर्म आदि के शरीर में मन लगाया, ऐसे ही हरि में लगाना चाहिये । यही सयानप है । यदि हरि में लगाते तो आपका कल्याण हो जाता ।
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मैं तो प्रातः काल होते ही प्रभु का भजन करूँगी । आपके मन की बात आप जानें" ॥
(क्रमशः)
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