सोमवार, 12 अगस्त 2024

*पाप कर्यो हम संत दुखावत*

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*साँई सेवा चोर मैं, अपराधी बन्दा ।*
*दादू दूजा को नहीं, मुझ सरीखा गन्दा ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*पाप कर्यो हम संत दुखावत,*
*हो तुम संत हमै अपराधी ।*
*व्राज१ रहो हम सेव करें तुम,*
*सेव करी सब ही विधि साधी२ ॥*
*ऊठ चले दृग भूत छुडाय रु,*
*क्षेम भयो उर आँखि सु लाधी३ ।*
*जाय बसे वन भूख लगी पन,*
*आप जिमावत जान अराधी ॥४१५॥*
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चरणों में पड़ा हुआ व्याकुलता से बोला-"हम दोनों ने संत को दुःख दिया है । यह महा पाप किया है । हम बड़े अभागी हैं । "विल्वमंगलजी उनको आश्वासन देते हुये बोले- "तुम लोग ही महान् संत हो, मैं तो साधु भेष को महा कलंक लगाने वाला असाधु और अपराधी हूँ" ।
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गलियन में हर्षित फिरै, साधु कहैं सब कोय ।
"श्वान नाम बाधा धस्यो, खोजी बाघन होय" ।
भेष और नाम मात्र से कौन साधु होता है । फिर भक्त ने प्रार्थना की- "आप यहीं विराजे१ रहिये हम आपकी सेवा करेंगे ।" आपने कहा- "तुमने तो सभी प्रकार से अच्छी२ सेवा की है ।"
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पश्चात् नेत्र रूप प्रेतों से छुटकारा पाकर तथा भक्त को शुभाशीर्वाद देकर वहाँ से वृन्दावन को चल दिये । अब बाहर के नेत्रों से देखने काम तो समाप्त हो गया था और हृदय की ज्ञान रूप सुन्दर आँखें प्राप्त३ हो गई थीं ।
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इससे आपको बड़ा आनंद प्राप्त हुआ था । फिर आप एक वन में जाकर बैठ गये परन्तु वहाँ भूख लगी । और तो कोई भोजन देने वाला वहाँ था नहीं, इसलिये इनको अपनी आराधना करने वाला भक्त जानकर स्वयं श्रीकृष्णजी ने ही भोजन कराया ॥
(क्रमशः)

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