सोमवार, 12 अगस्त 2024

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*काचा उछलै ऊफणै, काया हाँडी मांहि ।*
*दादू पाका मिल रहै, जीव ब्रह्म द्वै नांहि ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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मैंने सुना है, महाराष्ट्र में एक बड़े संत हुए--ज्ञानदेव। वे गुरु गोरखनाथ की परंपरा के संत थे। संतों की परंपरा चलती है। परंपरा से ही असली बात चलती है। जो बात लिख दी जाती है, उसका असली अर्थ खो जाता है। परंपरा का अर्थ होता है : कान से कान तक, कान कान से चलती है। परंपरा का अर्थ होता है : जिसने जाना उसने उसको जनाया जिसे अभी ज्ञात नहीं था। जब उसने जान लिया; उसने फिर किसी और को जनाया।
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सूफी इसी को सिलसिला कहते हैं। दुनिया में सिलसिले चलते हैं, परंपराएं चलती हैं। एक गुरु से किसी शिष्य को उपलब्ध होता है। फिर वही शिष्य उस गुरु की संपदा का मालिक हो गया। बुद्ध को मिला, तो महाकाश्यप को दिया। फिर महाकाश्यप से तैरते-तैरते उतरते-उतरते बोधिधर्म को मिला। फिर बोधिधर्म चीन चला गया और चीन में एक नयी परंपरा शुरू हो गयी, एक नया सिलसिला शुरू हो गया। मुहम्मद को मिला, फिर मुहम्मद से और फकीरों को मिलते-मिलते एक सिलसिला शुरू हुआ।
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किसी एक को, प्रथम जो होता है, परमात्मा से मिलता है। वह भी सिलसिला है। कोई एक अपने को ऐसा समर्पित कर देता है कि उसके भीतर परमात्मा को सीधा ही बोलना पड़ता है, मध्यस्थ की जरूरत नहीं होती। जिस व्यक्ति के भीतर परमात्मा सीधा बोलता है, उसी व्यक्ति से धर्म की शुरुआत होती है, सिलसिला होता है।
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जिनको हम पैगंबर कहते हैं, तीर्थंकर कहते हैं, अवतार कहते हैं, वे ऐसे ही पुरुष हैं--जिन्होंने किसी मनुष्य से नहीं सीखा; जिनके भीतर परमात्मा सीधा बोला; जिनका गुरु परमात्मा ही था। बुद्ध से परमात्मा सीधा बोला। महावीर से परमात्मा सीधा बोला। मुहम्मद से परमात्मा सीधा बोला या क्राइस्ट से परमात्मा सीधा बोला, या नानक से, कबीर से--सीधा बोला।
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फिर एक सिलसिला शुरू हुआ। फिर जो परमात्मा से सीधा संबंध नहीं जोड़ पाते, वे कबीर से जोड़ सकते हैं, नानक से जोड़ सकते हैं। इनके भीतर भी वही बात आ जाएगी। एक दफा जुड़ गया संबंध, तो ये परमात्मा से जुड़ गए। लेकिन इन्हें जरूरत पड़ी एक मध्यस्थ की। दुनिया में बहुत थोड़े लोग हैं, जो बिना मध्यस्थ के परमात्मा को जान पाएंगे। क्योंकि उसके लिए इतना समर्पण चाहिए, जितना समर्पण साधारण आदमी से जुटाने की अपेक्षा नहीं की जा सकती।
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ज्ञानदेव गुरु गोरखनाथ की परंपरा के अंग थे। वे अपने कुछ भक्तों को लेकर, थोड़े-से भक्तों को लेकर--उन्हीं को लेकर जो पहुंच गए थे, जो सिद्ध हो गए थे--भारत की यात्रा पर निकले। महाराष्ट्र में दूसरे प्रसिद्ध संत हुए--नामदेव। नामदेव तब तक संत नहीं थे। उन्होंने भी ज्ञानदेव से प्रार्थना कीः मुझे भी ले चलें।
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ज्ञानदेव ने कहा कि तू अभी कच्चा है। यह बात नामदेव को बहुत अखरी--कच्चा! भक्तिभाव उनका बड़ा था। बिठोबा के मंदिर में दिन-रात लगे रहते थे : “बिठोबा ! बिठोबा ! बिठोबा !’ चौबीस घंटे स्मरण चलाते थे, और ज्ञानदेव ने कह दिया : कच्चा ! उन्होंने कहा : क्या कच्चापन है ?
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ज्ञानदेव ने कहाः यही कि तू अभी भी यह बिठोबा बिठोबा बिठोबा लगाए रखता है। अभी दो हैं, इसलिए कच्चा। जब एक रह जाएगा, तब पक्का। अभी तेरा घड़ा आग में पड़ा नहीं, अभी पका नहीं। यह क्या मचा रखा है बिठोबा-बिठोबा !
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भगवान की याद जब तक करनी पड़ती है, तब तक दूरी है। जब तक भगवान दिखायी पड़ता है अलग, तब तक बात अभी घटी नहीं। जिस दिन भगवान भीतर ही विराजमान हो जाता है, जिस दिन भक्त और भगवान में कोई भेद नहीं रह जाता, जिस दिन भक्त ही भगवान हो जाता है--उस दिन पक्का।
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ज्ञानदेव ने कहा : मैं “पक्कों’ को ले जा रहा हूं, कच्चे को मैं नहीं ले जा सकता। मगर नामदेव बहुत पीछे पड़ गए, पैर पकड़ लिए कि नहीं, कच्चे ही सही, दया करो। साथ ही लगा रहूंगा। लगते-लगते शायद मैं भी पक जाऊं। बहुत रोए-धोए तो ज्ञानदेव ने उन्हें साथ ले लिया।
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मगर चोरी-छिपे जब कोई नहीं होता तो वे बैठकर बिठोबा-बिठोबा कर लेते थे, क्योंकि उनको यह भी डर लगा रहता था कि “पता नहीं, ऐसे में भगवान छूट न जाए, ये लोग अजीब से हैं! बस बैठ जाते हैं, बैठे रहते हैं। न कोई नाम-जप, न कोई नाम-स्मरण--ये करते क्या हैं ?’
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ऊपर-ऊपर से वह भी दिखलाते थे कि अब मैं कुछ ऐसा नहीं। मगर छोटी-सी एक मूर्ति भी अपने भी पास छिपाकर रखे हुए थे। अपने कपड़ों में गठरी में रखी होगी। जब सब सो जाते, रात में निकालकर बिठोबा को कहते कि “माफ करना, अब यह जरा सत्संग ऐसे लोगों का मिल गया है, ये सब हैं निर्गुण उपासक, ये सगुण को समझते नहीं हैं। घर चलकर तुम्हारी खूब पूजा करूंगा। अभी तो व्यवस्था से कर भी नहीं पाता, क्योंकि यह बात यहां जंचेगी नहीं, यहां यह भाषा ही नहीं चलती इन लोगों के साथ।’ तो ऐसा छुपा-छुपाकर।
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फिर एक गांव में ठहरे, जिनके घर में ठहरे वह एक कुम्हार था। सुबह बैठे थे धूप में, सब बैठे थे, कुम्हार भी बैठा था। वह कुम्हार भी बड़ा पहुंचा हुआ सिद्ध था, इसलिए उसके घर में ठहरे थे ज्ञानदेव। वह भी गुरु गोरखनाथ की परंपरा का अंग था।
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अज्ञात था। उसके नाम का कुछ पता नहीं। लेकिन बात जाहिर करवाने को ज्ञानदेव ने कहा कि भाई सुन, तू कुम्हार है, तुझे कच्चे-पक्के घड़ों की परख है ? उसने कहा : जिंदगी हो गयी, तो मैं कोई काम करता नहीं, कच्चे-पक्के घड़े हैं . . .। रात के अंधेरे में बता सकता हूं कि कौन कच्चा घड़ा है, कौन पक्का घड़ा है।
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तो उन्होंने कहा कि ये हमारे घड़े बैठे हैं, इनमें कौन कच्चा है, कौन पक्का है ? वह आदमी अपने घड़े पीटने के पिटने को उठा लाया, जिससे घड़े पीटे जाते हैं। और सब तो बैठे रहे, नामदेव बहुत डरे कि यह अजीब मामला है, क्या यह मारेगा कि क्या करेगा ! उसने लोगों की खोपड़ी बजानी शुरू कर दी। सब तो बैठे रहे; वे पक्के ही घड़े थे। वह खोपड़ी बजाता रहा, वे बैठे रहे।
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जब वह नामदेव की खोपड़ी बजाने लगा तो वे खड़े हो गए। उन्होंने कहा : यह क्या पागलपन है ? वह तो क्रुद्ध हो गए, नाराज हो गए, झगड़ने को तैयार हो गए। उस कुम्हार ने कहा : “और सब तो पके घड़े हैं। ज्ञानदेव महाराज, यह कच्चा है।’ ज्ञानदेव ने नामदेव को कहा कि “देख, एक कुम्हार भी पहचान लेता है कि कौन कच्चा है। निकाल, तेरा कच्चापन कहां छिपाया हुआ है ! इसकी गठरी खोलो।’
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गठरी में बिठोबा निकले। यह कच्चापन था। दो का भाव। परमात्मा दूजा है? उसको पुकारना है ? उसकी मूर्ति सजानी है ? उसको आभूषण लगाने हैं, थाल सजाने हैं, प्रसाद लगाना है, भोग लगाना है ? ये सब बचकानी बातें हैं। बुरी न भी हों तो भी बचकानी तो हैं ही। भली हों, तो भी बचकानी तो हैं ही। जैसे बच्चे खिलौनों से खेलते हैं, ऐसी ही है।
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सार-सूत्र याद रखो : एक हो जाना है। तो पहले अपने भीतर के द्वंद्व को एक छंद बनाओ। फिर एक छंद के बनते ही प्रसाद मिलता है और तुम त्रिवेणी बन जाते हो। तुम तो मिले थे दो--गंगा-यमुना--सरस्वती आ मिलती है।
अजहूं चेत गंवार--(संत पलटूदास-वाणी), ओशो

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