बुधवार, 25 सितंबर 2024

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*सुरति पुकारै सुन्दरी, अगम अगोचर जाइ ।*
*दादू विरहनी आत्मा, उठ उठ आतुर धाइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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*मेरे मन की स्त्री !*
अगर आप पुरुष हैं और आपको किसी स्त्री का आकर्षण है, तो यह आकर्षण बहुत गहरे में आपके भीतर ही जो आधी स्त्री बैठी है, उसके प्रति है। और जब तक यह स्त्री भीतर नष्ट न हो जाये, तब तक आप बाहर कितनी पत्नियां छोड़ते रहें, भागते रहें, कोई परिणाम नहीं होगा। आपके मन में स्त्री का आकर्षण बना ही रहेगा। वह घूम फिर कर आता ही रहेगा। फिर आप नयी नयी कल्पनाओं में उसका ही रस लेते रहेंगे।
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संन्यास बच्चों जैसी बात नहीं है कि एक लड़के को साधु संन्यासियों की बात सुनकर या किसी लड़की को भावावेश आ गया और उसने कपड़े बदल लिए और कुछ उलटा सीधा कर लिया, तो वह कोई संन्यासी हो गया ! भीतर उसकी साइक कैसी बनेगी ! उसका पूरा का पूरा अंतःकरण और मन कैसे बनेगा ? उस मन में तो, उसके अनकांशस में विपरीत लिंग बैठा हुआ है। अगर वह पुरुष है, तो उसके अनकांशस में स्त्री है; और अगर वह स्त्री है,तो उसके बहुत गहरे में पुरुष बैठा हुआ है। और उसी का आकर्षण है भीतर। बाहर उसी की खोज चलती है।
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इसलिए आप हैरान होंगे कि एक पत्नी से आप विवाह कर लेते हैं, थोडे दिन बाद पाते हैं कि यह तो मेरे मन की स्त्री नहीं मिली ! मन की स्त्री कौन ? मन की स्त्री, आपके भीतर एक मन में रूप बैठा हुआ है, आप उसकी खोज में हैं और वह स्त्री जब किसी स्त्री के बिलकुल निकट, निकट मिलेगी, तो आपको ज्यादा प्रेम मालूम होगा और अगर नहीं मिलेगी, तो अप्रेम मालूम होगा।
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और उसकी खोज बडी कठिन है कि वह स्त्री पूरे जमीन पर कौनसी होगी, जो आपके मन में एक प्रतिछवि स्त्री बैठी है, उसके ठीक प्रतिरूप हो, उसके ठीक सामानांतर हो, तो आपको तृप्ति होगी, नहीं तो आपको तृप्ति नहीं होगी। वह जो भीतर बैठी हुई स्त्री है और जो भीतर बैठा पुरुष है, उसका विलीनीकरण कैसे हो जाये और वहा एक ही चेतना हो जाये, कोई भेद न हो, तब व्यक्ति संन्यास को उपलब्ध होता है।
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यह बच्चों जैसी बात नहीं है, जिसको हम संन्यास समझते हैं। कोई पत्नी को, घर को छोड्कर भाग जाने की बात नहीं है। इधर घर छोड़ेंगे, दूसरी जगह घर बनाना शुरू कर देंगे। उसका नाम आश्रम होगा, कुछ और होगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; इससे कोई बुनियादी फर्क नहीं पड़ता। इधर परिवार छोड़ेंगे, उधर भी परिवार बनाना शुरू कर देंगे जो शिष्यों का, शिष्याओं का होगा। वही आपका परिवार होगा। उससे भी आपके मोह होंगे, दुख होंगे, सुख होंगे, खुशी होगी। आपका परिवार यह सारा का सारा ! आपका शिष्य आपके साथ होगा। यह कोई मेरी दृष्टि नहीं है।
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जिनको आप संन्यासी कहते हैं, उनको मैं नहीं कहता। जिनको आप गृहस्थ कहते हैं, उनको गृहस्थ नहीं कहता। मैं तो सारी दुनिया को ही गृहस्थ मानता हूं। उन गृहस्थों में से कुछ लोग रूपांतरण को उपलब्ध होकर संन्यास को पाते हैं। लेकिन वह संन्यास कोई वस्त्रों से संबंधित है ? इसका आप स्मरण रखें। वस्त्र बदलने की बात ही इतनी बचकानी और इम्मैच्योर है कि कोई बहुत सोच विचार का आदमी यह नहीं करेगा।
ओशो; चल हंसा उस देश

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