रविवार, 22 दिसंबर 2024

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*भक्ति निराली रह गई, हम भूल पड़े वन माहिं ।*
*भक्ति निरंजन राम की, दादू पावै नांहिं ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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प्रश्न: गुरु के सत्संग की तो आप रोज-रोज महिमा गाते हैं, पर प्रकृति के सत्संग की कभी-कभी ही चर्चा करते हैं। क्या गुरु प्रकृति से भी अधिक संवेदनशील द्वार है ? कृपा करके समझाए।
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प्रकृति है--सोया परमात्मा; और गुरु है--जागा परमात्मा। गुरु का अर्थ क्या होता है ? गुरु का अर्थ होता है: जिसके भीतर प्रकृति परमात्मा बन गई। तुम सोए हो; प्रकृति सोयी है; इन दोनों सोए हुओं का मेला भी बैठ जाए, तो भी कुछ बहुत घटेगा नहीं। दो सोए आदमियों में क्या घटनेवाला है ? दो साए हुई स्थितियों में क्या घटनेवाला है ? तुम अभी प्रकृति से तालमेल बिठा ही न सकोगे।
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तुम जागो, तो प्रकृति को भी तुम देख आओ। तुम जागो, तो प्रकृति में भी तुम्हें जगह-जगह परमात्मा का स्फुरण मालूम पड़े। पत्ते-पत्ते में, कण-कण में उसकी झलक मिले--लेकिन तुम जाओ तो। तुम अभी गुलाब के फूल के पास जाकर बैठ भी जाओ, तो क्या होना है ! तुम सोचोगे दुकान की। तुम अगर गुलाब के संबंध में थोड़ी बहुत सोचने की कोशिश करोगे, तो वह भी उधार होगा।
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तुम अभी जागे नहीं। तुम अभी अपनी प्रति नहीं जागे, तो गुलाब के फूल के प्रति कैसे जागोगे ? जो अपने प्रति जागता है, वह सब के प्रति जाग सकता है। और जो अपने प्रति सोया है, वह किसी के प्रति जाग नहीं सकता। और गुलाब का फूल गुरु नहीं बन सकता। क्योंकि गुलाब का फूल तुम्हें झकझोरेगा नहीं। गुलाब का फूल खुद ही सोया है, वह तुम्हें कैसे जगायेगा ?
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गुरु का अर्थ है--जो तुम्हें झकझोर, जो तुम्हारी नींद को तोड़े। तुम मीठे सपनों में दबे ही। कल्पनाओं में डूबे हो। जो अलार्म की तरह तुम्हारे ऊपर बजे; जो तुम्हें सोने दे...। एक बार तुम्हें जागरण का रस लग जाए, एक बार तुम आंख खोल कर देख लो कि क्या है, कि कोई बात नहीं है। फिर प्रकृति में भी परमात्मा है।
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इसलिए कभी-कभी मैं प्रकृति की बात करता हूं, लेकिन ज्यादा नहीं। क्योंकि तुम से प्रकृति की बात करी व्यर्थ है। तुम्हें इन वृक्षों में क्या दिखाई पड़ेगा ? वृक्ष ही दिखाई पड़ जाए, तो बहुत। वृक्षों से ज्यादा तो दिखाई नहीं पड़ेगा। तुम्हें मनुष्यों में नहीं दिखाई पड़ता--मनुष्यों से ज्यादा कुछ ! तो वृक्षों में वृक्षों में ज्यादा कैसे दिखाई पड़ेगा; तुम्हें अपने में नहीं दिखाई पड़ता कुछ भी।
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शुरुआत अपने से करनी होगी। और किसी जीवित गुरु के साथ हो लेने में सार है। गुरु का काम बड़ा धन्यवाद शून्य काम है। कोई धन्यवाद भी नहीं देता ! नाराजगी पैदा होती है। क्योंकि गुरु अगर तुम्हें जगाये, तो गुस्सा आता है। तुम गुरु भी ऐसे तलाशते हो, जो तुम्हारी नींद में सहयोगी हों। इसलिए तुम पंडित-पुरोहित को खोजते हो। वे खुद ही सोए हैं; घुर्रा रहे हैं नींद में; वे तुम्हारे लिए भी शामक दवा बन जाते हैं।
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जाग्रत गुरु से तुम भागोगे; सदा से भागते रहे हो; नहीं तो अब तक तुम कभी के जाग गए होते। बुद्ध से भागे; महावीर से भागे; कबीर से भागे होओगे। जहां तुम्हें कोई जागा व्यक्ति दिखाई पड़ा होगा, वहां तुमने जाना ठीक नहीं समझा; तुम भागते रहे हे। तभी तो अभी तक बच गये, नहीं तो कभी के जाग जाते। तुम पकड़ते ऐसे लोगों का सहारा हे, जो तुम्हारी नींद न तोड़ें।
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तुम कहते हो: ठीक है। धर्म भी हो जाए, और जैसे हम है, वैसे के वैसे भी बने रहे। तुम सोचते हो कि चलो, थोड़ा कुछ ऐसा भी कर लो कि अगर परमात्मा हो, तो उसके सामने भी मुंह लेकर खड़े होने का उपाय रह जाए; कि हमने तेरी प्रार्थना की थी, पूजा की थी। अगर हमने न की थी, तो हमने एक पुरोहित रख लिया था नौकरी पर, उसने की थी; मगर हमने करवाई थी--सत्य-नारायण की कथा। प्रसाद भी बंटवाया था !
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मगर भगवान न हो, तो कुछ हर्जा नहीं है; दो-चार-पांच रुपये का प्रसाद बंट गया; दो-चार-पांच रुपए पुरोहित ले गया; कोई हर्जा नहीं है। वह जो दस-पांच का खर्चा हुआ, उसको भी तुम बाजार में उपयोग कर लेते हो; क्योंकि जो आदमी रोज-रोज सत्य नारायण की कथा करवा देता है, उसकी दुकान ठीक चलती है। लोग सोचते हैं: सत्य नारायण की कथा करवाता है, तो कम से कम सत्य नारायण में थोड़ा भरोसा करता होगा। सत्य बोलता होगा। कम लुटेगा। कम धोखा देगा।
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यहां भी लाभ है--सत्य नारायण की कथा से। लोग समझने लगते हैं: धार्मिक हो, तो तुम आसानी से उनकी जेब काट सकते हो। उनको भरोसा आ जाए कि आदमी ईमानदार है, मंदिर जाता है, पूजा-प्रार्थना करता है, तो सुविधा हो जाती है; प्रतिष्ठा मिलती है। यहां भी लाभ है। और अगर कोई परमात्मा हुआ, तो वहां भी लाभ ले लेंगे।
ओशो
कन थोरे कांकर घने #6

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