रविवार, 22 दिसंबर 2024

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*सतगुरु की समझै नहीं, अपणै उपजै नांहि ।*
*तो दादू क्या कीजिए, बुरी बिथा मन मांहि ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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#महावीर ने चार घाट कहे हैं, जिनसे उस पार जाया जा सकता है।
दो घाट तो समझ में आते हैं--साधु का, साध्वी का; शेष दो घाट थोड़े कठिन मालूम होते हैं--श्रावक का और श्राविका का। श्रावक का अर्थ है, जो श्रवण में समर्थ है; जो सुनने की कला सीख गया; जिसने जान लिया कि सुनना कैसे; जिसने पहचान लिया कि सुनना क्या है।
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महावीर ने कहा है कि कुछ तो साधना कर-करके उस पार पहुंचते हैं, कुछ केवल सुन कर उस पार पहुंच जाते हैं। जो सुनने में समर्थ नहीं है, उसे ही साधना की जरूरत पड़ती है। अगर तुम सुन ही लो पूरी तरह तो कुछ करने को बाकी नहीं रह जाता; सुनने से ही पार हो जाओगे।
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इसी श्रवण की महिमा को बताने वाले नानक के ये सूत्र हैं। ऊपर से देखने पर अतिशयोक्तिपूर्ण मालूम पड़ेंगे कि क्या सुनने से सब कुछ हो जाएगा? और हम तो सुनते रहे हैं--जन्मों-जन्मों से और कुछ भी नहीं हुआ! हमारा अनुभव तो यही कहता है कि सुन लो--कितना ही सुन लो--कुछ भी नहीं होता; हम वैसे ही बने रहते हैं। 
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हमारे चिकने घड़े पर शब्द का कोई असर ही नहीं पड़ता; गिरता है, ढलक जाता है; हम अछूते जैसे थे, वैसे ही रह जाते हैं। अगर हमारा अनुभव सही है तो नानक सरासर अतिशय करते हुए मालूम पड़ेंगे। लेकिन हमारा अनुभव सही नहीं है; क्योंकि हमने कभी सुना ही नहीं है। न सुनने की हमारी तरकीबें हैं, पहले उन्हें समझ लें।
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पहली तरकीब तो यह है कि जो हम सुनना चाहते हैं, वही हम सुनते हैं; जो कहा जाता है, वह नहीं। हम बड़े होशियार हैं। हम वही सुनते हैं जो हमें बदले न। जो हमें बदलता है, उसे हम सुनते ही नहीं; हम उसके प्रति बहरे होते हैं। और यह कोई संतों का ही कथन हो, ऐसा नहीं है; जिन लोगों ने वैज्ञानिक ढंग से मनुष्य की इंद्रियों पर शोध की है, वे भी कहते हैं कि हम अट्ठान्नबे प्रतिशत सूचनाओं को भीतर लेते ही नहीं; सिर्फ दो प्रतिशत को लेते हैं। 
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हम वही देखते हैं, वही सुनते हैं, वही समझते हैं, जो हमसे तालमेल खाता है; जो हमसे तालमेल नहीं खाता वह हम तक पहुंचता ही नहीं। बीच में बहुत सी हमने रुकावटें खड़ी कर रखी हैं। और जो तुमसे तालमेल खाता है, वह तुम्हें कैसे बदलेगा ? वह तो तुम जैसे हो, उसे और मजबूत करेगा। जिससे तुम्हारी बुद्धि राजी होती है, कनविन्स होती है, वह तुम्हें कैसे रूपांतरित करेगा ? वह तो तुम्हें और आधार दे देगा जमीन में, और मजबूत पत्थर दे देगा, जिन पर तुम बुनियाद उठा कर खड़े हो जाओगे।
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हिंदू वही सुनता है जिससे हिंदू-मन मजबूत हो। मुसलमान वही सुनता है जिससे मुसलमान-मन मजबूत हो। सिक्ख वही सुनता है जिससे सिक्ख की धारणा मजबूत हो। तुम अपने को मजबूत करने के लिए सुन रहे हो ? तुम अपनी धारणाओं में और भी गहरे उतर जाने के लिए सुन रहे हो ? तुम अपने मकान को और मजबूत कर लेने के लिए सुन रहे हो ? तब तुम सुनने से वंचित रह जाओगे। क्योंकि सत्य का न तो सिक्ख से कोई संबंध है, न हिंदू से, न मुसलमान से। तुम्हारी कंडीशनिंग, तुम्हारे चित्त का जो संस्कार है, उससे सत्य का कोई भी संबंध नहीं है।
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जब तुम अपनी सब धारणाओं को हटा कर सुनोगे, तभी तुम समझ पाओगे कि नानक का अर्थ क्या है ! और अपनी धारणाओं को हटाने से कठिन काम जगत में दूसरा नहीं है; क्योंकि वे बहुत बारीक हैं, महीन हैं, पारदर्शी हैं। वे दिखाई भी नहीं पड़तीं; कांच की दीवाल है। जब तक तुम टकरा ही न जाओ, तब तक पता ही नहीं चलता कि दीवाल है; तब तक लगता है कि खुला आकाश तो दिखाई पड़ रहा है, चांदत्तारे दिखाई पड़ रहे हैं; लेकिन बीच में एक कांच की दीवाल है।
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जब मैं बोल रहा हूं, तो कभी तुम भीतर कहते हो, हां ठीक--जब तुमसे मेल खाता है; कभी तुम भीतर कहते हो, यह बात जंचती नहीं--जब तुमसे मेल नहीं खाता। तो तुम, मैं जो कह रहा हूं, उसे नहीं सुन रहे हो; जो तुमसे मेल खाता है, जो तुम्हें और सजाता-संवारता है, शक्तिशाली करता है, वही तुम सुन रहे हो। शेष को तुम छोड़ ही दोगे। 
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शेष को तुम भूल ही जाओगे। अगर कोई बात तुमने सुन भी ली, जो तुम्हारे विपरीत पड़ती है, तो तुम उसे भीतर खंडित करोगे; तर्क जुटाओगे; हजार उपाय करोगे कि यह ठीक नहीं हो सकता। क्योंकि एक बात तो तुम मान कर बैठे हो कि तुम ठीक हो। तो जो तुमसे मेल खाए, वही सच; जो तुमसे मेल न खाए, वह झूठ।
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अगर तुम सत्य को ही पा गए हो, तो फिर सुनने की कोई जरूरत ही नहीं है। वह भी तुमने पाया नहीं है; सुनने की जरूरत भी कायम है; सत्य को खोजना भी है; और इस धारणा से खोजना है कि सत्य मुझे मिला ही हुआ है! तुम कैसे खोज सकोगे ?
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सत्य के पास तो नग्न, शून्य, खाली हो कर जाना पड़ेगा। सत्य के पास तो तुम्हें अपनी सारी धारणाओं को छोड़ देना पड़ेगा। तुम्हारे सारे विश्वास, तुम्हारे सिद्धांत, तुम्हारे शास्त्र अगर बीच में रहे तो तुम कभी भी न सुन पाओगे। और जो तुम सुनोगे और समझोगे कि मैंने सुना है, वह तुम्हारी अपनी ही प्रतिध्वनि होगी। वह नहीं जो कहा गया था, वह जो तुम्हारे भीतर प्रतिध्वनित हुआ। तुम अपने ही मन की कोठरी को प्रतिध्वनित होते हुए सुनते रहोगे। तब तुम्हें नानक के वचन बड़े अतिशयोक्तिपूर्ण मालूम पड़ेंगे।
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दूसरा ढंग बचने का है कि लोग अक्सर, जब भी कोई महत्वपूर्ण बात कही जाए, तंद्रा में हो जाते हैं। वह भी मन का बचाव है। वह भी बड़ी गहरी प्रक्रिया है। जब भी कोई चीज तुम्हें छूने के करीब हो, तब तुम सो जाओगे।
एक ओंकार सतनाम(गुरू नानक) प्रवचन--5

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