सोमवार, 23 दिसंबर 2024

*परिचय, आत्मसाक्षात्कार ॥*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*मन मतवाला मधु पीवै, पीवै बारम्बारो रे ।*
*हरि रस रातो राम के, सदा रहै इकतारो रे ॥*
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*परिचय, आत्मसाक्षात्कार ॥*
अवधू पीवै रे दरवारि दरीबै, मन मेरा मतिवाला ।
राम रसाइन तुक इक चाख्या, नख सिख निकसी झाला ॥टेक॥
‘बोरजड़ी’ बाढ़ी बसि कीया, कस्स कसौटी डाल्या ।
मीठा सबद गुरु मेरे का, गुड़ गोली मैं गाल्या ॥
अरध उरध बिचि भाठी चाढ़ी, ब्रह्म अगनि जागाणी ।
बलै बिकार सुषमना पोतै, प्रेम प्रीति का पाणी ॥
जतन जड़ी जब धार धरवरी, तहँ सुरति कचोली लाई ।
उनि भरि दीया मैं भरि पीया, सुधि बुधि रही न काई ॥
कोड़ि कोड़ि का गड़वा भरिया, ‘छिलती’ छाक छिकाऊ ।
घर के माचि बाहर के माचे, गिरि गिरि पड़ैं बटाऊ ॥
जब मन जाइ दरीबै बैठा, हरि रस की मतिवाली ।
बषनां हाथि बारुणी सोहै आरति करै कलाली ॥२७॥
पाठान्तर : बोरजड़ी = बोरझड़ी, छिलती = * (मंगलदासजी की संपादित पुस्तक में), अवधू = जो प्रकृति के समस्त विकारों का अवधूनन = त्याग कर चुका हो । योगियों को सम्बोधित करने के लिये प्रयुक्त शब्द । दरिबै = आंगन, खुला स्थान । टुक = थोड़ा सा । झाला = दीप्ती । बोरजड़ी = बेर की कंटीली झाड़ी, विषय भोगों का बीहड़ जंगल । बाढी = बढ़ गई है; बाढ़ना = काटता । कस्स डाल्या कसौटी = कसौटी पर कस डाला । गुड़ गोली में गाल्या = गुड़ रूपी बुद्धि में घुला-मिला दिया । अरध-उरध = मूलाधारचक्र-सहस्त्रारचक्र : भाठी = भठ्ठी । चाढ़ी = चेताई । जागाणी = जागृत की । बलै बिकार = विषय विकार जल गये । पोतै = सुषुम्ना नाड़ी में पहुँचता है । सुषुम्ना = सरस्वती का प्रतीक मानी गई है, गंगा ईड़ा तथा पिंगला = यमुना का प्रतीक मानी गई है । धरवरी = चूने लगी । कचोली = कटोरी । कोड़ि-कोड़ि = करोड़ों-करोड़ों । गडवा = लोटा । यहाँ शरीर के प्रत्येक रोम रोम को भरा, से तात्पर्य । छिलती = स्त्रवित होती हुई । छाक = भोजन । छिकाऊ = तृप्ति । माचि, माचे = तृप्त हुए । बटाऊ = राहगीर, असम्बद्ध । कलाली = बुद्धि ।
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हे अवधू ! मेरा मतवाला मन राम-रसायन को दरबारि – दरीबै = परमात्मा द्वारा निर्मित इस संसार में खुलेआम पीता है ।(संतों ने अपनी वाणियों में सूरातण = शूरवीरत्व का अंग लिखा है जिसमें प्रायः साधक को शूरवीर मानकर उसके शूरवीरत्व का वर्णन होता है । शूरवीर अपने शत्रुओं से खुले में, चौड़े में लड़ाई करता है । साधक कभी भी लुकछिपकर साधना नहीं कर पाता । उसे संसार को छोड़कर; संसार में रहते हुए ही साधना करनी पड़ती है । यही दरीबै में पीना है ।) जब मैंने इस रामरसायन का जरा सा ही अंश पिया तब पैर से लेकर शिर तक पूरे शरीर में एक विशिष्ट दीप्ती उत्पन्न हो गई ।
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परमात्मा में सर्वतोभावेन प्रीति हो गई । मन में विषयों के प्रति आसक्ति बढ़ी हुई थी किन्तु इस रामरसायन ने उस मन को भी उनसे हटाकर अपने में आसक्त कर लिया । “मन बस करण उपाय नाम बिन दूजा नाहीं ।” और उसको कसौटी पर कस डाला ।
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उसको उन आदर्शों पर चलने के लिये बाध्य किया जिनपर उसको चलना साधणामार्ग में परमावश्यक था । मैंने मेरे गुरुमहाराज के मीठे = हितकारी उपदेशों को गुड़ रूपी बुद्धि में गला दिया, एकमेक कर दिया । नीचे से लेकर ऊपर तक एक भट्टी का निर्माण किया जिसमें ब्रह्म = विरह रूपी अग्नि विषय-विकार रूपी ईंधन को जलाकर प्रज्ज्वलित की और सुषुम्ना नाड़ी में भगवद्-प्रेम-प्रीति = भगवद्भक्ति का जल पहुँचाया ।
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साधना रूपी जड़ी की जब धारा स्त्रावित होने लगी तब सुरति रूपी कटोरी में उसे सुरक्षित झेल लिया । गुरु महाराज की कृपा ने मेरे अंदर रामरसायन का उक्त विधि से भंडार भर दिया जिसको मैंने छक कर पिया ।
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अब मुझे संसार और संसार के समस्त भोग विलासों की तनिक भी सुध-बुध नहीं रही है । मैं पूर्णरूपेण रामरसायन पीने में निमग्न हो गया हूँ । मेरे रोम-रोम में रामरसायन = रामनाम समा गया है । इस स्त्रावित होते रामरसायन रूपी छाक = भोजन से मैं पुर्णतः छिकाऊ = तृप्त होता हूँ । इस रामरसायन से घर के = आतंरिक और बाहर के = बाह्य = सभी अंग-प्रत्यंग तो तृप्त हुए ही हैं, बाहर के बटाऊ लोग = राहगीर लोग = सत्संगी लोग भी मदमस्त होकर इसी में लोट-पोट = निमग्न हो गये हैं ।
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बषनांजी कहते हैं, जब साधक का भगवद्-रस-लीन-मन हाथ में रामरसायन रूपी वारुणी लेकर दरीबे में बैठा तब कलाली उस पर न्यौछावर होकर उसकी आरती करते लगी ॥
(क्रमशः)

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