शनिवार, 21 दिसंबर 2024

*४४. रस कौ अंग ६९/७२*

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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४४. रस कौ अंग ६९/७२*
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सत रज तम की बासना, प्रव्रिति५ पद मंहि बास ।
न्रिवर्ति धरि जन नाऊं रत, सु कहि जगजीवनदास ॥६९॥
(५. प्रव्रिति=प्रवृत्ति, लोकव्यवहार)
संत जगजीवन जी कहते हैं कि तीनों गुणों सत, रज, तम, की इच्छा लोकव्यवहार में ही है । संसार से निवृत्ति में तो राम नाम ही पर्याप्त है ।
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कहि जगजीवन सहज मैं, सकल तजै आरंभ ।
सुमिरन लागा जन रहै, तहँ देव निरंजन स्यंभ६ ॥७०॥
{६. स्यंभ=शम्भू, शंकर(आदिनाथ)}
संत जगजीवन जी कहते हैं कि जो जीव सहज में सब आरंभ से ही त्याग देते हैं वे नाम स्मरण में ही लगे रहते हैं और उनके निकट ही परमात्मा होते हैं ।
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विद्या नांम बिसार हरि, बिष्नु अविद्या जास ।
सो क्यूं पीवै रांम रस, सु कहि जगजीवनदास ॥७१॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि जो जन हरि नाम की विद्या को भूल आशा पूर्ण करनेवाले विष्णु या देवों को संसारिक मनोकामना हेतु भजते हैं वे प्रभु स्मरण रुपी आनंद रस का पान कैसे कर सकते हैं ।
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परस्या* प्रेम न रांम रस, प्रीति न ह्रिदै प्रकास ।
डंडवत त्रिए सुध हरि भगता*, सु कही जगजीवनदास ॥७२॥
(*-*. गुरुचरणों का प्रेम भाव से स्पर्श, उन के प्रति ह्रदय से स्नेह प्रकट करना तथा सम्मुख आने पर तीन दण्डवत् प्रणाम करना- यह निश्छल साधु का लक्षण माना जाता है ॥७२॥)
संत जगजीवन जी कहते हैं कि गुरु चरणों का स्पर्श उनमें प्रेम तथा सन्मुख आने पर दण्डवत करना ये निश्छल साधु जन के लक्षण कहे गये हैं ।
(क्रमशः)

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