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*भाव भक्ति लै ऊपजै, सो ठाहर निज सार ।*
*तहँ दादू निधि पाइये, निरंतर निरधार ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(७)केदार, सुरेन्द्र आदि भक्तों के संग में*
दिन का पिछला पहर है । ऊपरवाले हॉल में कई भक्त बैठे हुए हैं । नरेन्द्र, शरद, शशि, लाटू, नित्यगोपाल, गिरीश, राम, मास्टर और सुरेश आदि अनेक भक्त बैठे हुए हैं । केदार आये । बहुत दिनों के बाद वे श्रीरामकृष्ण को देखने आये हैं । वे अपने ऑफिस के कार्य के सम्बन्ध में ढाके में थे । वहाँ से श्रीरामकृष्ण की बीमारी का हाल पाकर आये हैं ।
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केदार ने कमरे में प्रवेश करके श्रीरामकृष्ण की पदधूलि पहले अपने सिर पर धारण की, फिर आनन्दपूर्वक उसे औरों को भी देने लगे । भक्तगण नतमस्तक होकर उसे ग्रहण कर रहे हैं । केदार शरद को भी देने के लिए बढ़े, परन्तु उन्होंने स्वयं श्रीरामकृष्ण की धूलि लेकर मस्तक पर धारण की । यह देखकर मास्टर हँसने लगे । उनकी ओर देखकर श्रीरामकृष्ण भी हँसे ।
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भक्तगण चुपचाप बैठे हुए हैं । इधर श्रीरामकृष्ण के भावावेश के पूर्वलक्षण प्रकट हो रहे हैं । रह-रहकर साँस छोड़ते हुए मानो वे भाव को दबाने की चेष्टा कर रहे हैं । अन्त में गिरीष घोष के साथ तर्क करने के लिए केदार के प्रति इशारा करने लगे । गिरीश अपने कान ऐंठ कर कह रहे हैं, "महाराज, कान पकड़ा । पहले मैं नहीं जानता था कि आप कौन हैं । उस समय जो मैंने तर्क किया, वह और बात थी ।"
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(श्रीरामकृष्ण हँसते हैं)
श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र की और उँगली उठाकर इशारा करते हुए केदार से कह रहे हैं - "इसने सर्वस्व का त्याग कर दिया है । (भक्तों से) केदार ने नरेन्द्र से कहा था, 'अभी चाहे तर्क करो और विचार करो, परन्तु अन्त में ईश्वर का नाम लेकर धूलि में लोटना होगा ।' (नरेन्द्र से) केदार के पैरों को धूलि लो ।"
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केदार - (नरेन्द्र से) - उनके पैरों की धूलि लो, इसी से हो जायगा ।
सुरेन्द्र भक्तों के पीछे बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण ने जरा मुस्कराकर उनकी ओर देखा । केदार से कह रहे हैं, “अहा ! कैसा स्वभाव है !” केदार श्रीरामकृष्ण का इशारा समझकर सुरेन्द्र की ओर बढ़कर बैठे ।
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सुरेन्द्र जरा अभिमानी हैं । भक्तों में से कुछ लोग बगीचे के खर्च के लिए बाहर के भक्तों के पास से अर्थ-संग्रह करने गये थे । इस पर सुरेन्द्र को बड़ा दुःख है । बगीचे का अधिकतर खर्च सुरेन्द्र ही देते हैं ।
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सुरेन्द्र - (केदार से) - इतने साधुओं के बीच मैं क्या बैठूँ ! और कोई कोई (नरेन्द्र) तो कुछ दिन हुए, संन्यासी बनकर बुद्ध-गया गये हुए थे, - बड़े बड़े साधुओं के दर्शन करने ।
श्रीरामकृष्ण सुरेन्द्र को शान्त कर रहे हैं । कह रहे हैं, "हाँ, वे अभी बच्चे हैं, अच्छी तरह समझ नहीं सकते ।"
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सुरेन्द्र - (केदार से) - क्या गुरुदेव जानते नहीं, किसका क्या भाव है ? वे रुपये से नहीं, वे तो भाव लेकर सन्तुष्ट होते हैं ।
श्रीरामकृष्ण सिर हिलाकर सुरेन्द्र की बात का समर्थन कर रहे हैं । 'भाव लेकर सन्तुष्ट होते हैं' इस कथन को सुनकर केदार भी प्रसन्न हुए ।
(क्रमशः)
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