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*दादू राजस कर उत्पत्ति करै,*
*सात्विक कर प्रतिपाल ।*
*तामस कर परलै करै, निर्गुण कौतिकहार ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साक्षीभूत का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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साक्षी भूत का अंग १३
श्वान शिला सरिता संग सोई जु,
शूकर सिंह सु सींग लखावै ।
देवल१ स्थंभ रु मूरति के मधि,
छान छबीलो सु संत की छावै ॥
गौरी२ रु गौर३ गयंद४ में गोविन्द,
सेवक संत कहां कहां धावै ।
हो रज्जब राम रह्यो रम सारे में,
रूप हि छाडि अरूप हि पावै ॥२॥६८
वे ही श्वान होकर नामदेव की रोटी खाने आते हैं । वे ही शिला से हाथ निकालकर नामदेव को मार्ग बताते हैं । वे ही नामदेव की इच्छा से नदी में सह्त्र शय्या दिखाते हैं । वे ही सेवक के साथ हैं, वे शूकर बन कर पृथ्वी का उद्धार करते हैं । नरसिंह होकर प्रहलाद की रक्षा करते हैं । वे ही श्रृंगार युक्त मच्छ बनकर मनु और सप्त ॠषियों को दिखाई देते हैं ।
वे ही नामदेव और भीखजन के लिये मंदिर१ फिराते हैं । वे ही प्रहलाद के लिये स्तंभ से प्रकट होते हैं । वे ही मूर्ति के मध्य स्थित होकर नामदेव का दूध पीते हैं । वे ही छबीले संत नामदेव की छान छाते हैं ।
वे ही नारी२ होकर भस्मासुर से महादेव की रक्षा करते हैं । और वे ही विचार३ पूर्वक हाथी४ में स्थित होकर दादूजी की रक्षा करते हैं । वे ही गोविंद संतों के सेवक बन कर उनकी सेवा के लिये कहां से कहां अर्थात अति दूर दौड़ जाते हैं तथा …
वे साक्षी राम सब में ही रम रहे हैं । किंतु रूप को छोड़ने से ही वे अरूप प्रभु प्राप्त होते हैं अर्थात देहाध्यास छोड़ने से ही मिलते हैं ।
(क्रमशः)
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