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*देवै लेवै सब करै, जिन सिरजे सब कोइ ।*
*दादू बन्दा महल में, शोभा करैं सब कोइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साक्षीभूत का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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साक्षी भूत का अंग १३
लोक लिये रु लिपे नहिं लोकनि,
प्राण को प्राण रु प्राणन न्यारो ।
ज्यों जल जीवन मीन जलच्चर,
नीर न सीर१ रु सैन२ सहारो३ ॥
मारुत मै४ वपु बैन रु बादर,
वायु विरचि५ रही रु अधारो ।
सूर सु दूरि रु नैनन नीरो६ हो,
रज्जब येहो७ विवेक विचारो ॥१॥
साक्षी स्वरूप संबन्धी विचार प्रकट कर रहे हैं -
जैसे मच्छी आदि जलचरों का जीव जल ही है किंतु जलचरों से कोई साझा१ नहीं है, संकेत२ के समान जलचरों३ का आश्रय है ।
शरीर, वचन और बादल ये वायु-मय४ ही हैं किंतु वायु इनसे अलग५ भी हो रहा है और इनका आधार भी है ।
सूर्य दूर भी है और नेत्रों के समीप६ भी है । ऐसा७ ही विवेक विचार साक्षी स्वरूप ब्रह्म का है ।
वह संपूर्ण लोकों को धारण करता है किंतु लोकों से लिपायमान नहीं होता । प्राणों का प्राण है फिर भी प्राणों से अलग ही है ।
(क्रमशः)
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