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*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४४. रस कौ अंग ८१/८४*
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रांम कहाई४ जिनि कहौ, सावधान सुंनि राखि ।
कहि जगजीवन भगति करि, गुरु सेवा रस चाखि ॥८१॥
(४. कहाई=कथा)
संत जगजीवन ज कहते हैं कि प्रभु राम की कथा को सुनकर सावधानी पूर्वक मनन करो । प्रभु भक्ति कर गुरु सेवा रुपी आनंदरस का भी पान करो ।
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अठ सिधि नौ निधि नांउं मंहि, बिन सेवा क्यूं पाइ ।
कहि जगजीवन जागि लहै जन, रांम रिदै लिव लाइ ॥८२॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि आठ सिद्धि व नौ निधि बिना सेवा के नहीं मिलती जीव अज्ञान निद्रा से जाग कर ही राम नाम से ह्रदय में लगन लगा सकता है ।
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कहि जगजीवन रांम रस, रसना हरि रस राचि ।
नर निरबांण निरमोह रहै, बिषै बंचि हरि राचि ॥८३॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि राम स्मरण रुपी आनंद को जिह्वा पर रंग लो यदि जीव मुक्त निर्मोही होकर रहे तो वह विषय रुपी विष से बचता है ।
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अम्रित रस आकास का, स्त्रवै प्रांण मंहि पूरि ।
कहि जगजीवन नांउं लिया हरि, बिघन जांहि सब दूरि ॥८४॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि आकाश से अमृत रस का स्त्राव होता है, जो प्राणों को मिलता है । हरि का नाम लेने से ही संत कहते हैं कि सब विध्न दूर हो जाते हैं ।
(क्रमशः)
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