बुधवार, 1 जनवरी 2025

*इंद१ ज्यूं जिंद२ की जीवन गोरख*

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*दादू कहै, माया चेरी साधुहि सेवै ।*
*साधुन कबहूँ आदर देवै ॥*
*ज्यों आवै, त्यों जाइ बिचारी ।*
*विलसी, वितड़ी, न माथै मारी ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*सवैया-*
*इंद१ ज्यूं जिंद२ की जीवन गोरख,*
*ज्ञान घटा वरष्यो घट धारी ।*
*भूप निन्याणवे कोटि किये सिध,*
*आतम और अनन्त हि तारी ॥*
*विचरे तिहुँ लोक नहीं कहुँ रोक हो,*
*माया कहा बपुरी पचहारी ।*
*स्वाद न सपरश यूं रह्यो अपरश,*
*राघो कहै मनसा३ मन जारी ॥३१३॥*
जैसे इन्द्र१ वर्षा द्वारा भूत प्राणियों के जीवन२ रूप हैं, वैसे ही शरीरधारी गोरक्षनाथजी भी प्राणियों के जीवन रूप हैं । कारण उनने भी अपनी ज्ञान रूप घटा के द्वारा ज्ञानामृत वर्षाया है । आपने निन्यानवे कोटि(प्रकार) के क्षत्रियों को ज्ञानोपदेश देकर सिद्ध किया था अर्थात् आत्मजान से युक्त किया था ।
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और भी अनन्त जीवात्माओं का उद्धार किया था । आप तीनों लोकों में विचरते थे । कहीं भी आपको रोका नहीं जाता था । माया तो बेचारी इनके आगे क्या वस्तु थी ? अर्थात कुछ नहीं । वह तो इनको जीतने का प्रयत्न करके इनसे हार गई थी । सुनते हैं- एक समय माया ने इनसे कहा था-
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"उभे मारूं बैठे मारूं, मारूं, जगत सूता ।
तीन लोक भगजाल पसारूं कहाँ जायगा पूता" ॥
तब आपने कहा था-
"उभा जीतूं बैठा जीतूं, जीतूं जागत सूता ।
तीन लोक से न्यारा खेलूं मैं गोरख अवधूता"॥
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फिर माया ने सेवा द्वारा मत्स्येन्द्रनाथजी को प्रसन्न किया । उनने वर माँगने को कहा, तब माया ने गोरक्षजी को माँग लिया । देना ही पड़ा । ले जाने लगी तब आप गोद के बच्चे बन गये । गोद में लेने पर लात हाथ नख मुख आदि से मारने काटने लगे । तब एक कटोरे में डालकर ले जने लगी तो बारंबार टट्टी पेशाब से उसे खूब तंग किया ।
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अन्त में हार मानकर माया ने गोरक्षजी को छोड़ दिया । आप रसना इन्द्रिय के स्वाद से, त्वचा के स्पर्श आदि इन्द्रियों के विषयों की आसक्ति से अपरश रहे, अर्थात् आसक्त नहीं हुये थे । राघवदासजी कहते हैं- गोरक्षनाथजी ने सांसारिक मनोरथों को जला ही दिया था ।
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विशेष विवरण गोरक्षनाथजी के अवतार की कथा स्कन्द पुराणान्तर्गत 'भक्ति विलास' के ५१-५२ के दो अध्यायों में सांगोपांग रूप में वर्णित है ।
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एक बार मत्स्येन्द्रनाथजी घूमते फिरते अयोध्या के पास 'जय श्री' नामक नगर में गये । वहाँ वे भिक्षा माँगते हुये एक ब्राह्मण के घर पहुँचे । ब्राह्मणी ने बड़े आदर के साथ उनकी झोली में भिक्षा डाल दी । ब्राह्मणी के मुख पर पातिव्रत का अपूर्व तेज था ।
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उसे देखकर मत्स्येन्द्रनाथ अति प्रसन्न हुए । किन्तु उस सती के मुख पर किंचित उदासी भी ज्ञात होती थी । मत्स्येन्द्रनाथजी ने उदासी का कारण पूछा तब उसने कहा- संतान नहीं होने से संसार फीका जान पड़ता है । मत्स्येन्द्रनाथजी ने तुरन्त अपनी झोली से थोड़ी सी भस्म निकाल कर ब्राह्मणी के हाथ में देते हुए कहा- 'इसे खालो तुम्हें पुत्र प्राप्त होगा ।' इतना कहकर वे तो वहाँ से चले गये ।
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ब्राह्मणी की एक पड़ोसिन स्त्री ने जब यह बात सुनी तो उसने कई प्रकार से भय दिखाकर भस्म खाने से रोक दिया । उसने उसे एक गोबर के गड्ढे में फेंक दी । बारह वर्ष के बाद मत्स्येन्द्रनाथजी पुनः उसी ग्राम में आ पहुँचे और उसी घर के आगे 'अलख' जगाया ।
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ब्राह्मणी के बाहर आने पर कहा- अब तो तेरा बेटा बारह वर्ष का हो गया होगा, देखें तो वह कहाँ है ? यह सुनते ही वह स्त्री घबरा गई और जैसा हुआ वह सब हाल यथार्थ रूप से नाथजी को कह दिया । मत्स्येन्द्रनाथ उसे साथ लेकर उस गड्डे के पास आये और 'अलख' शब्द बोला ।
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उसे सुनते ही बारह वर्ष का एक तेज पुंज बालक वहाँ प्रकट हो गया और मत्स्येन्द्रनाथ के चरणों में शिर रखकर प्रणाम किया । यही बालक आगे चलकर गोरख नायक और से प्रसिद्ध हुआ । मत्स्येन्द्रनाथजी ने उस समय से बालक को अपने साथ ही रखा और योग की संपूर्ण शिक्षा दी ।
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गोरक्षनाथजी ने गुरु-उपदेशानुसार साधन कर योग में विशेष अनुभव प्राप्त किया था । गोरक्षनाथजी के प्रधान दो शिष्य थे- १. गैनीनाथ और २. चर्पटनाथ । गोरक्षनाथजी महान् योगी और विद्वान् भी थे । आपके गोरक्षकल्प, गोरक्षसंहिता, गोरक्षशतक, विवेकमार्तंड आदि अनेक संस्कृत ग्रंथ भी मिलते हैं ॥३१३॥
(क्रमशः)

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