बुधवार, 29 जनवरी 2025

*अविगत-ब्रह्म-विचार ॥*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*बहुत प्रशंसा करि कहूँ, हौं प्रभु अति अज्ञान ।*
*पूजा विधि जाणत नहीं, शरण राख भगवान ॥*
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*अविगत-ब्रह्म-विचार ॥*
कौंण जाणैं को गति तेरी, हौं न जाणौं हो देवा ।
जिहिं पूजा परम गुर पाऊँ, करि नहिं जाणौं सेवा ॥टेक॥
भगती भली कि भजन भलेरा, तप तीरथ जिव जाणैंलौ ।
या मेरै पैं कही न जाई, किन बातैं मन मानैंलौ ॥
इहिं धोखै मोरा मन डरिया, कैसी कछणी काछैलौ ।
न जाणौं वो रंग सुरंगा, काहू कै रंगि राचैलौ ॥
अनेक अनेक चरित ये तेरे, बहुत भाँति बुरावैलौ ।
हरि हरि ही बषनां बलिहारी, तुम देख्याँ सच पावैलौ ॥३३॥
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हे देव ! आपकी गति का स्वरूप क्या है इसको कौन जान सकता है ? निश्चय ही मैं तो नहीं जानता ।
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मैं उस प्रकार की सेवा करना भी नहीं जानता जिस प्रकार की सेवा-पूजा करने से गुरुओं के भी परमगुरु स्वरूप आप स्वयं की प्राप्ति होती है ।
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इस बात का निर्णय करने में मैं सर्वथा असमर्थ हूँ कि परब्रहम परमात्मा की गति भक्ति अथवा भजन अथवा तपस्या अथवा तीर्थों के सेवन से जानी जा सकती है । साथ ही मैं इस बात को स्पष्ट करने में भी असमर्थ हूँ कि अंततः मेरा संसारासक्त मन इनमें से किस साधन से अचंचलत्त्व को प्राप्त होगा ।
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यह मेरा मन किस कछणी = वस्त्र = मार्ग पर काछैलौ = पहनेगा = चल पड़ेगा, इस धोखै = संशय के कारण भी मेरा मन डरा जाता है । मैं इस बात को भी नहीं जानता कि यह रंग-सुरंगा = नाना-विषय भोगों में आसक्त मन किस रंग में रंगेगा ।
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वस्तुतः हे देव ! तेरे तरह-तरह के अनेकों कारनामे = ऐश्वर्यमयी लीलाएँ मेरे चित्त को बहुत प्रकार से बौरावैलौ = भ्रांत कर रहे हैं । अतः हे हरि ! बस, आप ही मेरे मार्गदर्शक हैं । मैं आप पर बलिहारी जाता हूँ और सच-सच कहता हूँ कि आपके दर्शन पाने पर ही मुझे सत्य की जानकारी होगी ॥३३॥
(क्रमशः)

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