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*दादू माया सौं मन रत भया,*
*विषय रस माता ।*
*दादू साचा छाड़ कर, झूठे रंग राता ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*त्रास दिखात मारि डरावत,*
*एक न भावत शील गह्यो है ।*
*जोर करयो निकस्यो झट छूटिक,*
*चालत दामन१ फारि लह्यो है ॥*
*रूस रही नृप आवत बूझत,*
*कैत भई सुत भोग चह्यो है ।*
*क्रोध भयो नृप हो तिय को जित,*
*न्याय न बूझत२ मूढ बह्यो३ है ॥४२४॥*
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तब रानी लूणा ने पूर्णमल को भय दिखाते हुए मार डालने तक भी कहा, किन्तु पूर्णमल ने तो शीलव्रत ग्रहण कर रखा था । इससे लूणा की प्रेम भय आदि की एक भी बात उन्हें अच्छी नहीं लगी ।
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वे बल करके अपना हाथ छुड़ाकर शीघ्रता से उसके महल से बाहर निकल गये । इस प्रकार पूर्णमल के जाने पर लूणा ने क्रोध के सारे राजा को दिखाने के लिये अपने ही हाथ से अपनी ओढ़नी की पल्ला१ फाड़ लिया और रूस कर बैठ गई ।
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राजा आया तब उससे पूछा- "क्यों रुष्ट हो रही हो ?" उसने कहा- "तुम्हारा पुत्र पूर्णमल मुझे भोगना चाहता है । आज उस दुष्ट ने मेरा सतीत्व विगाड़ने की शक्ति भर चेष्टा की थी, किन्तु मैं झटका देकर बल से उसके हाथ से मेरा अंचल१ छुड़ाकर भागी तब ही बच सकी हूँ । देखिये मेरा अंचल फटा पड़ा है ।"
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यह सुनकर राजा को क्रोध आ गया । क्योंकि उसको तो स्त्री ने जीत ही रखा था । अतः न्याय के लिये उसने पूर्णमल तथा मंत्री आदि से कुछ नहीं पूछा२ अथवा न्याय करना तो वह समझता२ ही कैसे, वह तो मूढ के समान स्त्री के कहने के अनुसार ही चलता३ था । कामाधीन को विचार का अवकाश ही कहाँ मिलता है । उसे हो कामांघ कहते ही हैं । यह तो लोक में अति प्रसिद्ध है कि उसे लज्जादि शुभ गुण तो छोड़ ही देते हैं ।
(क्रमशः)
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