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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४४. रस कौ अंग ९३/९६*
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जिस सूरति मूरति ह्रिदै, सो है सो क्रित साधि ।
जगजीवन अंग एकरस, अकल पुरिष आराधि ॥९३॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि जो प्रभु मूरत तेरे मन में है उसे ही साधने का काम करो । सभी इन्द्रियों को उन प्रभु में लगाकर ही उनकी आराधना करो ।
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प्रिथिवी सब हरि हरि करै, पांणी बांणी रांम ।
अनल पवन अबिगत अलख, गगन मगन निज नांम ॥९४॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि देह स्थित पांचों तत्व पृथ्वी जल आकाश वायु व गगन अग्नि सभी में प्रभु व्याप्त हैं अतः हे जन सभी उसी में मग्न हैं ।
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कहि जगजीवन बंदगी७, सेवा चार्यूं जांम८ ।
आग्याकारी अकल९ की, सावधान सब ठांम ॥९५॥
(७. बंदगी=विनयपूर्ण) {८. चार्यूं जाम=चारों याम(प्रहार)}
{९. अकल=कला(विभाग) रहित(अखण्ड)}
संत जगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु आपकी विनय पूर्वक वन्दना और चारों पहर सेवा बिना चतुराई आज्ञानुसार चलना और सदा सावधान सब जगहों पर रहना हो यह ही प्रार्थना है ।
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कहि जगजीवन जोग मंहि, भगति प्रेम रस भोग ।
भावै भुगतै भाव सौं, ना तिंहिं हरष न सोग ॥९६॥
संत जगजीवन जी कहते है कि हैं जीव योग में ही भक्ति प्रेम का आनंद ले । उसे भाव पूर्वकभोग उसमें हर्ष व शोक की प्रतीति न हो वह समर्पण भाव से हो ।
(क्रमशः)
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