मंगलवार, 28 जनवरी 2025

*४४. रस कौ अंग ९७/१००*

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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४४. रस कौ अंग ९७/१००*
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कहि जगजीवन नांम मंहि, अनंत जोग अरु भोग ।
भोगी रोगी बियोगी१०, जोगी हरष न सोग ॥९७॥
(१०. बियोगी=धन, स्त्री आदि से रहित)
संत जगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु के नाम में अनंत योग व भोग है । जो भोगी है वे प्रभु से वियोग तो सहते ही हैं आत्म रोगी भी होते हैं । और जो योगी जन हैं उन्हें न दुख है न खुशी है ।
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सम्रथ दे तो पाइये, धरी बसत धरि ध्यांन ।
कहि जगजीवन दूजा नहीं, हरि सुमिरन के ग्यांन ॥९८॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि अगर प्रभु दे तो अवश्य लीजिये क्योंकि वे समर्थ हैं देने योग्य वे ही हैं । अंतर में उस वस्तु का ध्यान भी करें प्रभु स्मरण से बढकर और कोइ ज्ञान नहीं है ।
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समरथ दे तो पाइये, परम पियाला सार ।
जगजीवन रस पीजिये, तब जाइ पाइए पार ॥९९॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि यदि प्रभु दे तो अवश्य ज्ञान का सार ग्रहण कीजिये और उसके आनंद को आत्म सात कर ही भव पार हो सकते हैं ।
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सम्रथ दे तो पाइए, भाव भगति फल एह ।
जगजीवन रस पीवतां, नख सिख भीजै देह ॥१००॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि यदि प्रभु दें तो भाव भक्ति अवश्य लीजिये । उस आनंद से पूरी देह प्रभु नामासिक्त हो जायेगी ।
(क्रमशः)

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