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*सुन्दरी मोहे पीव को, बहुत भाँति भरतार ।*
*त्यों दादू रिझवै राम को, अनन्त कला करतार ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*परिशिष्ट*
*(क)परिच्छेद १, केशव के साथ दक्षिणेश्वर मन्दिर में*
*(१)श्रीरामकृष्ण तथा श्री केशवचन्द्र सेन*
शनिवार, १ जनवरी, १८८१ ई. ब्राह्मसमाज का माघोत्सव आनेवाला है । राम, मनोमोहन आदि अनेक व्यक्ति उपस्थित हैं ।
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ब्राह्म भक्तगण तथा अन्य लोग केशव के आने से पहले ही कालीबाड़ी में आ गये हैं और श्रीरामकृष्णदेव के पास बैठे हुए हैं । सभी बेचैन हैं, बार-बार दक्षिण की ओर देख रहे हैं कि कब केशव आयेंगे, कब केशव जहाज से आकर उतरेंगे ।
प्रताप, त्रैलोक्य, जयगोपाल सेन आदि अनेक ब्राह्मभक्तों को साथ लेकर केशवचन्द्र सेन श्रीरामकृष्ण का दर्शन करने के लिए दक्षिणेश्वर के मन्दिर में आये ।
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हाथ में दो बेल फल तथा फूल का एक गुच्छा है । उन्होंने श्रीरामकृष्ण के चरण स्पर्श कर उन चीजों को उनके पास रख दिया और भूमिष्ठ होकर प्रणाम किया । श्रीरामकृष्ण ने भी भूमिष्ठ होकर प्रति-नमस्कार किया ।
श्रीरामकृष्ण आनन्द से हँस रहे हैं और केशव के साथ बात कर रहे हैं ।
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श्रीरामकृष्ण (केशव के प्रति, हँसते हुए) - केशव, तुम मुझे चाहते हो, परन्तु तुम्हारे चेले लोग मुझे नहीं चाहते । तुम्हारे चेलों से कहा था, 'आओ, हम खंजन-मंजन करें, उसके बाद गोविन्द आ जायेंगे ।'
(केशव के शिष्यों के प्रति) “वह देखो जी, तुम्हारे गोविन्द आ गये । मैं इतनी देर तक खंजन-मंजन कर रहा था, भला आयेंगे क्यों नहीं ? (सभी हँसे)
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"गोविन्द का दर्शन सहज नहीं मिलता । कृष्ण-लीला में देखा होगा, नारद जब व्याकुल होकर ब्रज में कहते हैं - 'प्राण ! हे गोविन्द ! मम जीवन !' - उस समय गोपालों के साथ श्रीकृष्ण आते हैं, पीछे पीछे सखियाँ और गोपियाँ । व्याकुल हुए बिना ईश्वर का दर्शन नहीं होता ।
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(केशव के प्रति) "केशव, तुम कुछ कहो, ये सब तुम्हारी बात सुनना चाहते हैं ।"
केशव - (विनीत भाव से हँसते हुए) - यहाँ पर बात करना लुहार के पास सूई बेचने की चेष्टा-जैसा होगा !
श्रीरामकृष्ण - (हँसते हुए) - बात क्या है, जानते हो ? भक्तों का स्वभाव गाँजा पीनेवालों-जैसा है । तुमने एक बार गाँजे की चिलम लेकर दम लगाया, और मैंने भी एक बार लगाया । (सभी हँसे)
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दिन के चार बजे का समय है । कालीबाड़ी के नौबतखाने का वाद्य सुनायी दे रहा है ।
श्रीरामकृष्ण - (केशव के प्रति) - देखा, कैसा सुन्दर वाद्य है ! लेकिन एक आदमी केवल एक राग - 'पों' - निकाल रहा है और दूसरा अनेक सुरों की लहर उठाकर कितनी ही राग-रागिनियाँ निकाल रहा है । मेरा भी वही भाव है ।
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मेरे सात सूराख रहते हुए फिर मैं क्यों केवल 'पों' निकालूँ - क्यों केवल 'सोऽहम्' 'सोऽहम्' करूँ ? मैं सात सूराखों से अनेक प्रकार की राग-रागिनियाँ बजाऊँगा । केवल 'ब्रह्म-ब्रह्म' ही क्यों करूँ ? शान्त, दास्य, वात्सल्य, सख्य, मधुर सभी भावों से उन्हें पुकारूँगा, आनन्द करूँगा, विलास करूँगा ।
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केशव अवाक् होकर इन बातों को सुन रहे हैं और कह रहे हैं, “ज्ञान और भक्ति की इस प्रकार अद्भुत और सुन्दर व्याख्या मैंने कभी नहीं सुनी ।”
केशव - (श्रीरामकृष्ण के प्रति) - आप कितने दिन इस प्रकार गुप्त रूप में रहेंगे - धीरे धीरे यहाँ पर लोगों का मेला लग जायगा ।
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श्रीरामकृष्ण - तुम्हारी यह कैसी बात है ! मैं खाता-पीता रहता हूँ और उनका नाम लेता हूँ । लोगों का मेला लगाना में नहीं जानता । हनुमानजी ने कहा था, 'मैं वार, तिथि, नक्षत्र यह सब कुछ नहीं जानता, केवल एक राम का चिन्तन करता हूँ ।"
केशव - अच्छा, मैं लोगों का मेला लगाऊँगा, परन्तु आपके यहाँ सभी को आना पड़ेगा ।
श्रीरामकृष्ण - मैं सभी के चरणों की धूलि की धूलि हूँ । जो दया करके आयेंगे, वे आवें !
केशव - आप जो भी कहें, आपका आगमन (अवतार ग्रहण) व्यर्थ न होगा ।
(क्रमशः)
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