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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*अति गति आतुर मिलन को,*
*जैसे जल बिन मीन ।*
*सो देखे दीदार को, दादू आतम लीन ॥*
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*सुमिरण ॥*
मन मेरे सुमरि सुमरि गुण गाइ ।
लख लोग कहौ लख बाताँ अैसी आई दाइ ॥टेक॥
केसरि का छापा अरु टीका, को इहिं मति भरमि भुलाइ ।
पवन की डोरी रसन कौ मनियौं, चित कै चाइ फिराइ ॥
जल मैं मीन जुगति तत पाखैं, ग्यान बिहूणौं न्हाइ ।
हरि कौ सुमिरण हिरदै नांही, तौं कियौ अबिरथौ जाइ ॥
जैसी चकोर चूँप ससि राखै, अैसी प्रीति बनाइ ।
बषनां कहै राम किन सुमिरौ, हरि चरणौं ल्यौ लाइ ॥३४॥
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मेरे मन में इस प्रकार की दाइ = इच्छा जागृत हुई है की चाहे लाखों लोग लाखों प्रकार की बातें क्यों न कहें किन्तु उन पर विचार न करके परब्रह्म परमात्मा के गुणों को याद कर-करके स्मरण करूँ ।
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मस्तक पर केशर-चंदन के तिलक और हाथादि अन्य अंगों पर छाप लगाने के भ्रम में ही किसी को भ्रमित नहीं होना चाहिये । परमात्मा के प्राप्त्यर्थ तो पवन = श्वास-प्रश्वास के धागे और जिव्हा के मणियों की माला बनानी चाहिये ।
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फिर तो उस माला को चित्त में प्रबल चाह उत्पन्न करनी फेरनी चाहिये । हरि का स्मरण बिना ज्ञान का आश्रय लिये हृदय से न करने पर वह उसी प्रकार व्यर्थ चला जाता है जिस प्रकार जल में मछली का स्नान बिना नहाने की युक्ति और तत्त्व जानने के कारण चला जाता है ।
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वस्तुतः भगवद्स्मरण में लगन ठीक उसी प्रकार लगानी चाहिये जिस प्रकार चकोर की एकान्ति की चूँप = चाह = स्पृहा चन्द्रमा को प्राप्त करने की रहती है । बषनां कहता हैं, रामजी के चरणों में लय लगाकर क्यों नहीं उसका स्मरण करते हो ॥३४॥
(क्रमशः)
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