गुरुवार, 27 फ़रवरी 2025

साँच चाणक को अंग १४

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*दादू कहि कहि मेरी जीभ रही, सुनि सुनि तेरे कान ।*
*सतगुरु बपुरा क्या करै, जो चेला मूढ़ अजान ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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साँच चाणक को अंग १४
शब्द की चोभ१ रहै न अचेत२,
कोटि सुने कछु हाथ न आवै ।
भुवंग३ अनैक थलै४ विल पैसे५ सु,
पीछे न आगे सु खोज लखावै ॥
मीन अपार चलैं जल मांहिं पै६,
शोधे न संधि कहीं कोई पावै ।
पक्षी अनन्त उड़ैं बहु वायु में,
रज्जब पवन सु फाटि न जावै ॥९॥
भूमि४ के बिलों में अनेक सर्प३ प्रवेश५ करते हैं, किंतु फिर आगे उनके खोज नहीं दिखाई देते हैं ।
अपार मच्छी जल में चलती है परन्तु६ खोजने पर भी उनके जाने की संधी कोई भी कहीं नहीं मिलती है ।
बहुत प्रकार के अनन्त पक्षी वायु में उड़ते हैं किंतु उनसे वायु फटता हुआ नहीं दिखाई देता है ।
वैसे ही मूर्ख२ प्राणी के हृदय रूप शुष्क भूमी में शब्द रूप पौध१ नहीं रहती है । मूर्ख चाहे कोटि प्रकार से सुनता रहे किंतु उसके कुछ भी हाथ नहीं लगता है ।
(क्रमशः)

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